संयुक्त राष्ट्र संघ की द स्टेट आफ द वर्ल्ड्स इंडीजीनस पीपुल्स नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि मूलवंशी और आदिम जनजातिया पूरे विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर हैं।
रिपोर्ट में भारत के झारखंड राज्य की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यहा चल रहे खनन कार्य के कारण विस्थापित हुए संथाल जनजाति के हजारों परिवारों को आज तक मुआवजा तक हासिल नहीं हो सका है। गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी और अशिक्षा के कारण आज आदिवासी समाज अपनी संस्कृति से दूर होता जा रहा है। परसंस्कृति ग्रहण की समस्या ने आदिवासी समाज को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहा वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं। बीच की स्थिति के कारण ही उनके जीवन और संस्कृति पर संकट मंडराने लगा है। यह सब कुछ उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण ही हुआ है।
भारत में ब्रिटिश शासन के समय सबसे पहले जनजातियों के सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। जनजातियों की निर्धनता का लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियों ने उनके बीच अनाज, कपड़े और औषधिया बांटनी शुरू की। लिहाजा, जनजातियों का उनकी ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक था। लिहाजा, बड़े पैमाने पर जनजातियों का धर्म परिवर्तन हुआ, लेकिन सच कहा जाए तो जनजातियों के जीवन में कोई खास सुधार नहीं हुआ। ईसाइयत न तो उनकी गरीबी, बेरोजगारी को कम कर पाई और न ही उन्हें इतना शिक्षित ही बना पाई कि वे स्वावलंबी होकर अपने समाज का भला कर सके।
विवाह और सामाजिक संपर्क के क्षेत्र में उन्हें अब भी एक पृथक समूह के रूप में देखा जा रहा है। आज भारत के उत्तर-पूर्वी तथा दक्षिणी भागों की जनजातियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकार करने लगे हैं। उन्होंने धीरे-धीरे अपनी मूल भाषा-बोली का ही परित्याग कर दिया है।
सच तो यह है कि प्रत्येक समूह की भाषा में उसके प्रतीकों को व्यक्त करने की क्षमता होती है और यदि भाषा में परिवर्तन हो जाए तो समूहों के मूल्यों और उपयोगी व्यवहारों में भी परिवर्तन होने लगता है। सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्श नियमों का क्षरण होने से आदिवासी समाज संक्रमण के दौर से गुजरने लगा है।
जनजातियों की संस्कृति पर दूसरा हमला कारपोरेट जगत और सरकार की मिलीभगत के कारण भी होने लगा है। जंगल को अपनी मातृभूमि समझने वाले जनजातियों के इस आशियाने को उजाड़ने का जिम्मा खुद सरकारों द्वारा उठा लिया गया है। जंगलों को काटकर और जलाकर उस भूमि को जिस प्रायोजित तरीके से उद्योग समूहों को सौंपा जा रहा है, उसका भी प्रभाव संस्कृति पर साफ देखा जा रहा है।
मूलवासी जनसमूह व्यावसायिक और एक फसल के कारण आजीविका के संकट से तो जूझ ही रहे ही हैं, साथ ही वे कई तरह की बीमारियों से भी लड़ रहे हैं। अगर विकसित देश अमेरिका की ही बात की जाए तो आम आदमी की तुलना में आदिवासी समूह के लोगों को तपेदिक हाने की आशंका 600 गुना अधिक है। उनके आत्महत्या करने की आशंका भी 62 फीसदी ज्यादा है।
आस्ट्रेलिया में आदिवासी समुदाय का कोई बच्चा किसी अन्य समूह के बच्चे की तुलना में 20 साल पहले मर जाता है। नेपाल में अन्य समुदाय के बच्चे की तुलना में आदिवासी समुदाय के बच्चे की आयु का अंतर 20 साल, ग्वाटेमाला में 13 साल और न्यूजीलैंड में 11 साल है।
विश्व स्तर पर देखें तो आदिवासी समुदाय के कुल 50 फीसदी लोग टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं। आशंका तो यह भी जताई जा रही है कि इस सदी के अंत तक जनजातीय समाज की 90 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दलितों के खिलाफ जाति आधारित भेदभाव के कारण अन्य लोगों के बनिस्पत अनुसूचित जातियों में गरीबों की तादाद ज्यादा है।
आदिवासी जन समुदाय की दीन-दशा पर ध्यान खींचते हुए कहा गया है कि इनकी आबादी विश्व की जनसंख्या की महज 5 फीसदी है, लेकिन दुनिया के 90 करोड़ गरीब लोगों में मूलवासी लोगों की संख्या एक तिहाई है। विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में कुपोषण, गरीबी और सेहत को बनाए रखने के लिए जरूरी संसाधनों के अभाव और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण आदिवासी जनसमूह विश्वव्यापी स्तर पर अमानवीय दशा में रह रहे हैं।
आज जरूरत है जनजातियों की संस्कृति और उनके जीवन को बचाने की है। अन्यथा संस्कृति और समाज की टूटन जनजातियों को राष्ट्र की मुख्य धारा से तो अलग करेगी ही, उन्हें हिंसक घटनाओं की ओर भी जाने के लिए उकसाएगी और वे दंतेवाड़ा जैसी घटनाओं को अंजाम देने से तनिक भी नहीं हिचकेंगे।
साभार-दैनिक जागरण से
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