उदयपुर। श्रम, समूह और सहकारिता पर आधारित आदिवासी जीवन का विघटन व्यक्तिगत संपत्ति के उदय से जुडा और तभी आदिवासी और गैर आदिवासी समाज में विभाजन भी हुआ। सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार और अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यकार समिति के राष्ट्रीय महासचिव वाहरू सोनवणे ने उक्त विचार ’आदिवासी विद्रोह और साहित्य‘ विषयक संगोष्ठी में व्यक्त किए। मानगढ में आयोजित इस संगोष्ठी में हरिराम मीणा के उपन्यास ’धूणी तपे तीर‘ पर चर्चा की गई। सोनवणे ने कहा कि मानगढ का नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का गौरव चिन्ह है लेकिन इसका इतिहास में न होना इस बात का परिचायक है कि इतिहासकार भी पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं होते।
साहित्य संस्कृति की विशिष्ट पत्रिका ’बनास‘ द्वारा आयोजित इस संगोष्ठी में राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के प्रो. रवि श्रीवास्तव ने ’धूणी तपे तीर‘ को हिन्दी प्रदेश की संघर्षशील जनता की कर्मठता का दस्तावेज बताया। उन्होंने कहा कि आंचलिकता के विपरित नॉन रोमैंटिक मिजाज पूरे उपन्यास में आदिवासी समाज की प्रवंचनाओं के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टि भी रखता है। प्रो. श्रीवास्तव ने इसे औपनिवेशिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप अपनी जडों से विस्थापित होते आदिवासी जनजीवन के बदलावों और प्रतिरोध की संस्कृति की महागाथा बताया। सुखाडया विश्वविद्यालय, उदयपुर के डॉ. आशुतोष मोहन ने कहा कि पहला गिरमिटिया और जंगल के दावेदार के बीच यह उपन्यास एक नयी श्रेणी की उद्भावना करता है जो इतिहास और साहित्य के बारीक संतुलन को साधने वाली है। गुजरात से आये प्रो. कानजी भाई पटेल ने कहा कि लिखित समाज आदिवासी जीवन और संस्कृति पर मौन रहा है इसी कारण वाचिक परंपराओं में ही इस जीवन के वास्तविक चित्र मिलते हैं। उन्होंने ’धूणी तपे तीर‘ को इस परंपरा में एक नई शुरुआत बताते हुए कहा कि इतिहास को चुनौती देने के कारण यह उपन्यास सचमुच में महागाथा का रूप ग्रहण कर पाया है। आकाशवाणी उदयपुर के कार्यक्रम अधिकारी लक्ष्मण व्यास ने चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि टंट्या भील, चोट्टी मुण्डा जैसे आदिवासी नायकों के साथ गोविन्द गुरु का भी महत्वपूर्ण योगदान है लेकिन हिन्दी समाज इस नायक से अपरिचित ही था। उपन्यास के लेखक हरिराम मीणा ने अपनी रचना प्रक्रिया बताते हुए कहा कि मनुष्य के हक की लडाई के इतिहास को मनुष्य विरोधी शोषक-शासकों ने दबाया है और उनके आश्रय में पलने वाले इतिहासकारों ने उनका साथ दिया है।
अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवलकिशोर ने कहा कि मुख्यधारा के इतिहास और अनलिखे इतिहास में भेद है। वर्चस्वशाली प्रभुवर्ग ने हाशिए के लोगों की पीडा को वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। उन्होंने ’धूणी तपे तीर‘ को इस संदर्भ में उल्लेखनीय कृति बताते हुए कहा कि यथार्थ चित्रण के साथ यह उपन्यास समानान्तर इतिहास लेखन भी करता है। इससे पहले जागरूक युवा संगठन, खेरवाडा के सदस्यों द्वारा गोविन्द गुरु के क्रान्ति गीत ’नी मानु रे भुरेटिया‘ की प्रस्तुति से संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ। आयोजन में अर्जुन सिंह पारगी की पुस्तक ’स्वामी गोविन्द गुरु ः जीवन अने कार्य‘ का विमोचन भी किया गया। संचालन कर रहे ’बनास‘ के सम्पादक डॉ. पल्लव ने अतिथियों का परिचय दिया। आयोजन में मानगढ विकास समिति के नाथुरामजी, लखारा आदिवासी सृजन के सम्पादक जितेन्द्र वसावा, जागरूक युवा संगठन के संयोजक डी.एस. पालीवाल, पत्रकार श्याम अश्याम ने भी चर्चा में भागीदारी की। माल्यार्पण और स्मृति चिन्ह ’बनास‘ के सहयोगी गणेश लाल मीणा ने भेंट की।
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