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03 दिसंबर 2010

अभ्यारण्यों के पिंजरे में कैद वनवासी

अभ्यारण्यों के पिंजरे में कैद वनवासी

Adivasi_women-शिवकुमार पाण्डेय

वन एवं वन्य प्राणियों को बचाने के लिए राष्ट्रीय अभ्यारण्य, सेन्चुरी, टाइगर रिजर्व, पशु-पक्षी अभ्यारण्य स्थापित किये गये हैं परन्तु न वन बच पा रहे हैं न ही वन्य प्राणी। वनों के क्षेत्रफल का निरन्तर कम होता जा रहा आंकड़ा एवं हाल ही मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से बाघों का गायब होना इसका एक उदाहरण है। राजस्थान के सरिस्का से बाघों के गायब होने का यह सिलसिला यदाकदा प्रकाश में आता ही रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभियान का एक घटक वनवासी की उपेक्षा से यह स्थिति उत्पन्न हो रही है।

वन्य जीवों की तरह वनवासी भी इन अभ्यारण्यों का एक अंग है। वनों में सरकारी मतभेद के बाद भी वनों की कटाई, छंटाई, भेड़बन्दी एवं वन मार्गों के निर्माण के लिए स्वयं वन विभाग ने इन्हें बसाया है। वन ग्रामों का अस्तित्व ही वनवासियों की बसाहटों से हुआ है जहां राजस्व ग्रामों की भांति बासिन्दों के हक जमीन-जायदाद के नहीं रहे हैं परन्तु उन्हें वन भूमि पर कृषि करने, कृषि कार्य में सहायता, पेय जल एवं वनों से फल-फूल जलावन, लकड़ी एवं घर बनाने के लिये बांस-बल्ली प्राप्त करने की स्वतंत्रता रही है।

वन अधिनियम 1927 एवं वन संरक्षण अधिनियम 1980 के बाद वनों का वर्गीकरण आरक्षित, संरक्षित, मिले-जुले एवं विरक्त वन क्षेत्र में करने के बाद वन कामों के अतिरिक्त वनों में निवास करने वाले वनवासियों को प्रतिबन्ध के बावजूद विस्तार सुविधानुसार कतिपय सामग्री प्राप्त करने की छूट वन विभाग ने ही प्रदान की थी। प्राप्त सुविधा के अतिरिक्त भी वनवासी वनपत्रों के रूप में जीवन जीने की आधारभूत सामग्री कांदा, तरह-तरह के फल औषधीय उपयोग की सामग्री प्राप्त करता रहा क्योंकि वन क्षेत्रों में जीवित रहने का कोई अन्य विकल्प उसके पास नहीं था।

परन्तु अभ्यारण्यों की स्थापना ने न केवल वन अधिकारियों की कसर पूरी की वरन् वन क्षेत्रों में निवासरत वनवासियों को जेल की चहारदीवारी में बन्द कर दिया। इसके नियम कानून ने अभ्यारणों में निवासरत वनवासियों को कैदी सा जीवन व्यतीत करने को बाध्य कर दिया।

भारत में लगभग 550 जनजातीय समुदाय और 227 तथा कथित अन्य वनवासी समुदाय निवास करते हैं। वन विशेषज्ञ यह मानते है कि वन्य प्राणियों एवं वनों को नष्ट करने का श्रेय इन समुदायों को है। शिकार की जन्मजात प्रवृत्ति जंगली जानवरों को नष्ट करती है वहीं वन सम्पदा के बेरोकटोक उपयोग ने वनों को नष्ट करने के कगार पर ला दिया है। यह ऐसा हास्यास्पद विचार है जिससे वे वन विशेषज्ञ भी सम्भवत: सहमत नहीं होंगे जो जनजातियों की रीति-नीति व रहन-सहन से परिचित है। यह विचार ही मुख्य रूप से विकृत विचार है क्योंकि वर्तमान में भी जहां-जहां जनजातियों का वास है वहीं-वहीं घना जंगल शेष है, वहीं- वहीं वन्य-पशुओं की बहुतायत है। जनजातियों की माने तो उनके मत में जंगल विभाग वनों को बचाने वाला विभाग नहीं है उसे काटने वाला विभाग है। वह वनों का लोकहित में उपयोग ही नहीं जानता, वह तो व्यवसायिक दोहन के पीछे पड़ा है। इस मुहिम में चाहे जंगल बचे अथवा न बचे, उत्पादन के आंकड़ों की बढ़ोतरी आवश्यक है। वे यह भी महसूस करते हैं, वन विभाग की विशेषता रोपण में कम, काटने के लिये कूप चिन्हित करने में अधिक है। इसका परिणाम यह निकला है कि चिन्हित वृक्षों की दुगुना, तीन गुना वृक्ष ऐसे काटे गये हैं जो चिन्हित नहीं। यह स्थिति मिलीभगत का परिणाम है। इसी मिलीभगत ने जंगल नष्ट किया है। साथ ही वन्य प्राणियों को भी नष्ट किया है। क्योंकि कूप करने की बड़े पैमाने की खरपट उन्हें जंगलों से इधर-उधर भागने को मजबूर करती रही है। कहीं वह मैदानी क्षेत्र में शरण के लिए गये हैं। तो कहीं आबादी क्षेत्र में। फलस्वरूप उसे अपनी जान गंवानी पड़ी है।

भारत में कुल 1,56,006 वर्ग कि. मी. क्षेत्र में राष्ट्रीय अभ्यारण्य एवं वन अभ्यारण्य फैले हैं। ये सघन वन क्षेत्र हैं जहां वन्य प्राणियों के साथ-साथ मानव आबादी भी है। टाइगर रिजर्व के नाम पर घोषित 37 रिजर्व (घोषित होने की प्रक्रिया में) पर भारी भरकम राशि व्यय करने के बाद भी बाघों के मरने की घटनाएं प्रकाश में आती हैं। पिछले तीन वर्षों में अधिकृत रूप से 100 के करीब बाघ मारे जा चुके हैं। इसमें पन्ना के मरे बाघ सम्मिलित नहीं हैं। मात्र 37 टाइगर रिजर्व में से 9 की स्थिति संतोषजनक बताई जाती है। पिछले वर्ष की तुलना में चालू वर्ष 2009-10 में इनके रखरखाव व्यय को 129,87 करोड़ से 184,83 करोड़ तक बढ़ा दिया गया है। ये तमाम प्रयत्न व्यर्थ जा रहे हैं। जाहिर है इन बाघों को समाप्त करने का श्रेय वनवासियों को नहीं दिया जा सकता। इतनी सख्त पाबन्दी में मात्र मिली भगत से इसे व्यापारिक हितों के लिये अंजाम दिया जा रहा है जिसकी पृष्ठभूमि में तस्कर एवं अवैध शिकारी गिरोह है। सदियों से परम्परागत रूप से वनों से जुड़े लोगों की उपेक्षा का यह परिणाम हैं कि आज स्थिति नियंत्रण के बाहर चली गई है। वन विभाग द्वारा समस्त नियंत्रण स्वयं के हाथ में लेने से वनवासी की यह समझ बन गई है कि वनों एवं प्राणियों को बचाने का जिम्मा वन विभाग का है। उन्हें इससे कुछ लेना देना नहीं। वनवासियों की इसी उदासीनता ने वनों को समाप्ति के कगार पर ला खड़ा किया है। वनवासी शिकार करने से इंकार नहीं करते परन्तु उनका कहना है वे केवल ऐसे जीवों का शिकार करते हैं जिनकी संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ती है और यह बढ़ती संख्या वनों के संतुलन को समाप्त करती है। उनके मत में बाघ सरीखे प्राणियों का शिकार तो राजा, महाराजा, बड़े नौकरशाह करते रहे हैं। वे इतना अवश्य स्वीकार करते हैं, उनका उपयोग होंकर के लिये अवश्य किया जाता रहा है पर वे इन जानवरों के नजर करने के आरोप को अस्वीकार करते हैं।

भारत में 5,87,274 गांव हैं जिनमें से 1,70,379 के पास अभी भी जंगल हैं। पूर्व में ग्रामों का 75 से 80 प्रतिशत गांव जंगल था वर्तमान में 22.23 प्रतिशत जंगल शेष है। पर्यावरणविदों का मानना है कि पर्यावरण की दृष्टि से मैदानी इलाके में 33 प्रतिशत एवं पहाड़ी इलाकों में 66 प्रतिशत जंगल होना चाहिए परन्तु औसत जंगल क्षेत्र 22 प्रतिशत पर आ पहुंची है। वनवासियों की अपनी परंपरागत लोक वानिकी है जिसके अनुसार वनों की रक्षा, वन्य प्राणियों की रक्षा के साथ-साथ स्वयं के जीवन निर्वाह के लिये वन संपदा के उपयोग को सुनिश्चित किया जाता है।

वनवासियों की देववनों की परम्परा भारत में पृथक-पृथक नाम से मानी जाती है। महाराष्ट्र में देवराई अथवा देवरा दही, कर्नाटक में देवरावन, देवरा काड, वन या नाग वन, राजस्थान में ओरोस, केंवरी या वानी विहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ में सरना, केरल में काबू, तामिलनाडु में कोविल काडु, मणिपुर में लार्ड उमंग, असम में थान, मेघालय में कीला लिग्दोह या बील व्यांग टांग, मधयप्रदेश में देववन का देवदान, हिमालय में देववन। अनुमान है, महाराष्ट्र में 1600, कर्नाटक में 1424, गुजरात में 29, केरल में 2000, तमिलनाडु में 448, हिमाचल प्रदेश में 5000, मध्यप्रदेश में 31, झारखण्ड में 21, छत्तीसगढ़ में 600, आंध्ररप्रदेश में 750, उड़ीसा में 322 पश्चिम बंगाल में 570, मीनपुर में 365, मेघालय में 79, असम में 40 और अरुणाचल प्रदेश में 58 देववन हैं जो कई हजार हेक्टर भूमि में हरियाली बचाये हुए हैं।

गोत्र नाम से जुड़े पेड़ पौधों को न काटना, न ही नुकसान पहुंचाना, औषधीय पौधों को अर्पण करने के बाद उतनी ही मात्रा में छाल, पत्ते प्राप्त करना जितना एक बार कुल्हाड़ी चलाने पर प्राप्त हो सके, प्राप्त करने के पश्चात पेड़ की ओर मुड़कर भी न देखना, हरे पेड़, फलदार पेड़ जड़ से नहीं काटना, उन्हीं पेड़ों की शाखाओं को काटना जो तुरंत खड़े हो जाये, जनजातियों की लोकवानिकी का अंग है। वन्य प्राणियों के बारे में उनकी संहिता में गोत्र से जुड़े वन्य प्राणियों को न मारना, न ही नुकसान पहुंचाना, उन्हीं जीव-जन्तुओं व वन्य प्राणियों का शिकार जिनका प्रजनन बहुलता में और जिनकी जनसंख्या जंगल के संतुलन को प्रभावित करती है। बस्तर का आखेर पर्व ‘परद’ भी जनजातीय नियंत्रण से मुक्त नहीं है और परद में भी अंधाधुंध शिकार वर्जित है।

खाली वन क्षेत्र को सघन वनक्षेत्र में परिवर्तित करने के वनवासियों के प्रयोग से उनकी परम्परागत लोक वानिकी को समझा जा सकता है। मध्यप्रदेश के तत्कालीन मंडला (वर्तमान मंडला और डिंडोरी) के साल वनों में बीसवीं सदी के अन्त में साल बोरर नामक कीड़े का प्रयोग हुआ था जो महत्वपूर्ण साल वृक्षों को जड़ तने से खोखला कर रहा था। साल वृक्षों को बचाने की मुहिम में वन विभाग ने हजारों की संख्या में पेड़ काट डाला। समूचा जंगल नष्ट होता देख कीड़ों को पकड़ने का अभियान छेड़ा गया। इसमें सफलता मिली और साल वन विहीन होने से पूरा इलाका बचा लिया गया। परन्तु सघन वन विरल वन के रूम में परिवर्तित हो चुका था क्योंकि 50 प्रतिशत से भी अधिक पेड़ काटे जा चुके थे। वन अधिकारियों ने बचे-खुचे साल वृक्षों को भी काटने के लिये मार्किंग प्रारम्भ की। डिंडोरी जिले के समनापुर विसाल खंड के ढाबा ग्राम के वनवासियों ने जंगल से एक भी पेड़ काटने का विरोध किया। जिले के वरिष्ठ अधिकारियों ने वनवासियों से चर्चा के पश्चात पेड़ न काटने का निर्णय लिया। साल वृक्षों के कटने से वनवासियों की आवश्यकताओं की वस्तुएं समाप्त हो चुकी थी। जिनमें भ्रष्टराज, ऐंटी तेजराज, लीखुर, नागराज, मसली, बहचांदी शतावर, हाथजोड़ी नामक औषधीय पौधे, चार चिरौजी, आंवला, हर्रे, बहेड़, तेई सरीखे फल-फूल सम्मिलित थे।

ग्रामवासियों ने जंगल सहेजना प्रारम्भ किया। स्वयं के नियम बनाये गये। कुल्हाड़ी लेकर जंगल में प्रवेश न करना, पेड़ न काटना, जंगल में बीड़ी चुग्गी न पीना, बिना श्रम की अनुमति के कुछ भी लाभ न करना, चोरी छुपे प्राप्त करने पर जुर्माना भरना, किसी भी पेड़ को जड़ से न काटना इत्यादि। ग्रामवासियों के प्रयत्न से जंगल पूर्ववत बन गया। उल्लेखित समस्त सामग्री प्रचुर रूप में प्राप्त होने वाली। आय से वृद्धि के लायक कुंओं में पानी भरपूर आया जिससे पानी की समस्या समाप्त हुई।

राष्ट्रीय अभ्यारण्यों की बसाहर की हालत जेलों में कैदी जैसी हो गई है। इसे छत्तीसगढ़ के एक अभ्यारण के उदाहरण से समझा जा सकता है। रायपुर-संबलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के ग्राम पटेवा से 17 कि. मी. दूर 244.66 वर्ग कि. मी. में फैला अभ्यारण्य 1976 से राष्ट्रीय अभ्यारण्य घोषित है। सेंचुरी में 22 गांव हैं जिनमें जनजातियों के साथ ही 22 अन्य वर्गों के लोग भी निवासरत हैं। वनवासी तो परम्परागत हैं परन्तु आसपास के इलाके के ग्रामवासियों एवं उड़ीसा के कालाहांडी आदि इलाकों से भी लाकर वनवासी बसाये गये हैं।

इन व्यक्तियों के लिये वनपत्रों के संग्रहण का कार्य अब सहज नहीं है। लुक छिपकर ये महुआ आदि एकत्र करते हैं। बीड़ी पत्ता (तेंदूपत्ता) एकत्रित करना इनकी आय का प्रमुख जरिया हुआ करता था जिसे बेचकर ये अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। जन्म, विवाह, मरनी-हंसी केवल तेंदूपत्ता की राशि इनके काम आती थी। अब न संग्रह आसान है न ही खरीदी केन्द्र के फड़ों पर इनकी बिक्री। सैद्धांतिक तौर पर वनोपत्र संग्रहण पर प्रतिबन्ध नहीं। परन्तु पूरे 22 गांव के निवासियों का एक स्वर कैसे झुठलाया जा सकता है। सेन्चुरी क्षेत्र में आना जाना प्रतिबन्धित है। प्रवेश के लिये परमिशन चाहिए जिसे रायपुर से लाना पड़ता है। वन ग्राम की अनेक घोषित सुविधाएं अब उपलब्ध नहीं। डर कर जीवन व्यतीत कर रहे इन ग्रामों के लोग आंधी, पानी में गिरी हरी डालियां भी नहीं उठा सकते अन्यथा दंड का भागी बनना पड़ता है। जंगल सघन है जहां सागौन, बीजा, लेंड़िया, हत्दू, सलई, आंवला, अमलतास के वृक्ष हैं। चीतल, सांभर, नील गाय, जंगली सूगर, भालू, बाघ, शेर बहुतायत में हैं। चोरी-छुपे सब कुछ होता है। वनाधिकार कानून को शासन जनजातियों एवं अन्य परम्परागत वनवासियों के लिये वरदान मानता है। परन्तु इसमें तरह-तरह के पेंच हैं। अधिकांश परिवारों को इतना लाभ मिलने वाला नहीं। शेष भी आशंकित हैं कि उनके परिवार, पास पड़ोस का हाल क्या होगा। यह कौन सा वरदान है जो आशंका का बीजारोपण कर रहा है।

मध्यप्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में भी सैकड़ो परिवारों को विस्थापित होना पड़ा था। से भूख मरता परिवार बांस काटने महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली गया और मजदूरी पाकर, पेट भर अपने साथ नक्सलवाद ले आया। मंडल, बालाघाट के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान ने वन एवं वन्य प्राणियों को कितना बचाया यह अलग प्रश्न है, परन्तु उग्रवादी जहर की पुड़िया इस पूरे वन्य को प्रभावित कर गई। उनके प्राकृतिक हक की रोकटोक ही बालाघाट मंडला में नक्सलवाद के पदार्पण की पृष्ठभूमि है।

वनों एवं वन्य प्राणियों की रक्षा राष्ट्रीय दायित्व है परन्तु इन्हें तभी बचाया जा सकता है जब वनवासियों को भागीदार बनाया जाय। वन उनका जीवन है। वनों से अलग होकर उनका जीवन अनेक संकटों का सामना कर रहा है। देश के कई हिस्सों में जलाऊ लकड़ी का न मिलना अथवा उसके लिये मीलों पैदल जाना बस्तर सरीखें अंचल के जनजातियों के जीवन को दूभर बना चुका है। वन विभाग को वनवासियों की लोकवानिकी को समझना होगा। वनों के विस्तार, वनों के रखरखाव एवं वन्य प्राणियों को बचाने की मुहिम में उनका सहयोग लेना होगा। लघु वनपत्रों को उनके लिये सुलभ बनाना होगा। वनाधिकार कानून ऐसे अधिकार की बात तो करता है पर व्यवहार अंधकार में हैं। राष्ट्रीय अभ्यारण्यों के नियम बदलने होंगे। तभी वनवासियों की कैद समाप्त होगी।

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