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03 दिसंबर 2010

आदिवासी संस्कृति और साहित्य में स्त्री का दर्ज़ा------------रमणिका

से तो आदिवासी स्‍त्रियों की स्वतन्त्रताऔर स्वच्छन्दता के मिथक और भ्रम का प्रचार खूब किया जाता रहा है लेकिनउनके समाज के भीतर भी कुछ ऐसे कड़े नियम और बँटवारे हैं जो स्‍त्री को पुरुषसे कमतर महसूस करने के लिए गढ़े गए हैं। एक बात तो माननी होगी कि भारतीय संस्कृति के बिल्कुल विपरीत आदिवासी स्‍त्री को अपना वर ख़ुद चुनने की इज़ाज़त है। इसके लिए वह न तो दंडित होती है और ना ही दोषी क़रार दी जाती है। उनके यहाँ तो घोटुल प्रथा चालू थी जहाँ युवा लड़के-लड़कियों को एक साथ रखकर सब प्रकार का ज्ञान दिया जाता था। यह उनका प्रशिक्षण स्थल था। इसलिए भारत की अन्य स्‍त्रियों के विपरीत आदिवासी लड़कियाँ लड़कों को देखकर न तो मोम की तरह पिघलती हैं ना ही बर्फ की तरह पानी-पानी हो जाती हैं बल्कि वे उससे बतियाती हैं, परखती हैं और अगर जीवन साथ निभाने का स्कोप देखती हैं तो दोनों रज़ामंदी से ब्याह भी कर लेते हैं। मन न मिलने पर पति को छोड़ने का अधिकार उन्हें भी प्राप्त है।

दरअसल आदिवासी स्‍त्रियों पर कड़े नियम सम्पत्ति में हिस्सेदारी को लेकर हैं इसलिए जनजातीय संस्कृति में महिला कीस्थिति को जानने के लिए जनजातीय सामाजिक व्यवस्था की पुरातन और वर्तमान स्थिति को जानना भी ज़रूरी है। ऐसे तो कई जनजातियों में आज भी मातृ सत्ता जारी है लेकिन अधिकांशतः जनजातियाँ पितृप्रधान समाज को ही मानती हैं। जहाँ मातृप्रधान सत्ता है, वहाँ भी गोत्रा भले माँ के नाम से चलता है और कहीं-कहीं सम्पत्ति की अधिकारी भी पुत्री होती है, इसके बावजूद उस समाज मेंभी पिता या मामा ही अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बात पुरुष की ही चलती है।

वैसे आदिवासी समाज सामूहिकता और समानता में विश्वास रखताहै। उनके यहाँ अँगरेज़ों के आने से पहले सम्पत्ति नाम की कोई अवधारणा नहीं थी। गाँव की पूरी की पूरी ज़मीन जो अधिकांशतः जंगलों में ही अवस्थित थी, पूरे के पूरे गाँव की होती थी, किसी विशेष व्यक्ति की नहीं, जिसमें औरत, मर्द, बच्चे से लेकर बूढ़े तक, स्वस्थ से लेकर विकलाँग या रोगी तक सभी बराबरके हक़दार होते थे। जनजातियों के पितृप्रधान समाज में भी लड़कियाँ पिता केघर जब तक चाहे रह सकती थीं। पति के मरने के बाद भी उनके भरण-पोषण कीज़िम्मेवारी पिता और भाइयों पर होती थी चूँकि किसी का भी ज़मीन में अलगहिस्सा नहीं होता था इसलिए स्‍त्री के अलग से हिस्से का प्रश्न कभी उठा हीनहीं था। आदिवासी समाज मैदानी या तथाकथित सभ्य कही जाने वाली संस्कृति से, अलग-थलग जंगलों में रहता था और उनकी स्‍त्रियॉं भी उतनी ही स्वतन्त्रा होतीथीं जितने कि पुरुष। सच तो यह है कि आदिवासी स्‍त्रियॉं मेहनत करने केमामले में पुरुषों से ज़्यादा ही क्षमतावान होती हैं। चाहे जंगल से लकड़ीकाटना हो या खेत का काम करना हो अथवा शिकार करना हो, सामाजिक तौर पर कहींभी ग़ैरबराबरी नहीं थी। कालान्तर में जब अँगरेज़ों ने राजस्व की नई नीतिबनायी और ज़मीन के पट्टे जमींदारों के नाम लिखे, समस्या तभी से पैदा हुई। अबचूँकि ज़मीनें पुरुषों के नाम से लिखी गयीं तो उसमें किसी भी आदिवासीमुखिया या माँझी-हाड़ाम या प्रधान ने औरतों के नाम खाते में यह कहक़र नहींचढ़ने दिए कि ये तो दूसरे के घर चली जाएँगी। यहाँ तक कि कभी-कभी पूरे परिवारका एक ही नाम चढ़ा और घर के बाक़ी बालिग़ लोग खाते में दर्ज़ होने से वंचित रहगये। जब ग़ैरआदिवासी समाज आदिवासी क्षेत्रों में ज़मीनों के पट्टे लिखाकर औरसूदखोर बनकर प्रवेश करने लगा तब ज़मीनें और जंगल ग़ैर आदिवासियों के पासहस्तांतरित होने शुरू हो गये, विशेषतया झारखंड, छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में। तबसे दूसरे समाज की सारी विकृतियाँ भी इस समाज में भी प्रवेश करने लगीं औरसामूहिक प्रवृत्ति की जगह वर्चस्ववादी प्रवृत्ति की शुरुआत हुई। आज तकसंताल, मुंडा, उरांव, हो तथा खड़िया जनजातियों में स्‍त्रियों को पिता कीसम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं मिला है। इतना ही नहीं यहाँ काम के बँटवारेमें भी स्‍त्रियों के साथ अन्याय किया गया है। बिटिया मुर्मू केअनुसार-‘‘स्‍त्री और पुरुष की शारीरिक बनावट के आधार पर काम में बँटवारासमझ आ सकता है, लेकिन आदिवासी पुरुष समाज ने कार्य का बँटवारा शारीरिकबनावट या क्षमता के आधार पर न करके, स्‍त्री पर अधिकार जताने के दृष्टिकोणसे, कड़े-कड़े नियम-क़ानून बनाकर उन्हें कुछ कामों से वर्जित कर दिया, जैसे हल चलाना, घर का छप्पर छाना या धनुष छूना अर्थात् ज़मीन और घर जो आज कीपरिभाषा में सम्पत्ति के प्रतीक हैं, पर आदिवासी पुरुष समाज का ही अधिकाररहे।’’ यदि कोई स्‍त्री हल छू दे या छप्पर छा ले, तो उसे निर्मला पुतुल कीकविता की पात्रा सजोनी किस्कू की तरह अपने कंधों पर हल रखकर ज़मीन जोतनीपड़ती है और बैलों के नाद में जबरन भूसा खाना पड़ता है। अगर कोई पिता अपनीमातृविहीन पुत्री को अपनी पीठ पर बाँधकर हल जोत ले, तो वह पिता भी दंड काभागीदार होता है।

पैतृक सम्पत्ति में अधिकार की माँग विगत वर्षों सेआदिवासी समाज में, खासकर झारखंड में उठने लगी है। इस मुद्दे को लेकरमानुषी पत्रिका की सम्पादक मधु किश्वर की सहायता से एक आदिवासी औरत जुलयानालकड़ा ने इस भेदभाव के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था। 17 अप्रैल 1996 को सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को इस अन्यायपूर्ण व्यवस्थामें परिवर्तन करने का निर्देश दिया था लेकिन बिहार सरकार ने उत्तराधिकारमें महिलाओं की भागीदारी का इस आधार पर विरोध किया कि आदिवासी समाज इससंशोधन का इसलिए विरोधी है क्योंकि उन्हें यह अंदेशा है कि स्‍त्रियों कोसम्पत्ति में भागीदारी देने से ग़ैर आदिवासी लोग उनसे ब्याह करके आदिवासियोंकी ज़मीन हथिया लेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश जारी कर झारखंड और बिहारसरकार से जाँच करने के लिए कहा, लेकिन 31जुलाई,1992 को बिहार जनजातीय सलाहकारपरिषद ने इसका विरोध कर दिया। कोर्ट ने पुनः व्यापक बहस कराने की अनुशंसाकी पर न तो बिहार और ना ही झारखंड सरकार ने इस पर कोई चर्चा चलायी। उल्टेवह चुने हुए प्रतिनिधियों की राय के विपरीत राय भेजकर सुप्रीम कोर्ट कोगुमराह करती रही।

सम्पत्ति का ये विवाद आदिवासियों के कुछ क़बीलोंमें ही है। पूर्वोत्तर में स्थिति कुछ भिन्न है। मेघालय मातृसत्ता प्रधानराज्य है। वहाँ खासी समाज में सम्पत्ति पर बेटियों का अधिकार होता है। बोड़ोसमाज में भी बेटियाँ वंचित नहीं हैं। मिजो समाज हालाँकि पितृसत्ता प्रधानहै लेकिन वंश माँ के गोत्रा से ही चलता है।

पूर्वोत्तर राज्यों मेंकाम के बँटवारे में भी कोई पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाया गया। वहाँस्‍त्री-पुरुष मिलकर सभी काम करते हैं। मिजोरम में स्‍त्री भी हल चलाती है।

दक्षिण में आदिवासी समाज अधिकतर अपने-अपने प्रदेश की संस्कृति में समायोजित हो गया है, केवल कुछ आदिवासी आदिम जनजातियों तथा बंजारे, लम्बाड़ी, कुरुप्पन जैसी घुमंतु जनजातियों को छोड़कर। फिर भी कुछ बातें जो भारत की सभी जनजातियों में समान हैं, वे हैं-दहेज प्रथा का न होना, अपने लिए वर कास्वयं चयन करना, युवा युवती दोनों को प्रेम करने की स्वतन्त्रता, स्‍त्री पुरुषों का एक साथ मिलकर खाना-पीना व उत्सवों में खुलेआम भाग लेना और नाचना-गाना। ये सुविधाएँ और अधिकार भारतीय परम्पराओं में किसी धर्म में स्‍त्रियों को प्राप्त नहीं हैं।

आदिवासियों में तो पुरुष को ही वधु के लिए कन्या शुल्क की राशि देनी पड़ती है तभी उसकी शादी हो सकती है। इसे झारखंड में पौनप्रथा कहते हैं। वरपक्ष, वधुपक्ष को धन देता है और विदाई केसमय लड़की के भाई को एक बैल भी देना पड़ता है। शादी के पहले और बाद मेंवरपक्ष को रस्म के अनुसार वधु पक्ष के परिवार को वधुपक्ष की इच्छानुसारखिलाना-पिलाना पड़ता है। इन्हीं कारणों से संथालों में लड़की भागकर शादीकरने का प्रचलन है और इस प्रथा के कारण कभी-कभी तो लड़कियाँ लम्बी उम्र तकअविवाहित भी रह जाती हैं। इसके कारण अब लड़के अन्य जातियों की लड़कियों कोब्याहक़र लाने लगे हैं। बिटिया मुर्मू कहती हैं कि ‘‘आदिवासी समाज कीस्‍त्रियों को उनके प्रथागत क़ानूनों के आधार पर सम्पत्ति के अधिकार सेवंचित रहने देना सरासर अन्याय है। हो सकता है क़ानून परिवर्तन से सम्बन्धोंमें कुछ खटास पैदा हो या विरोध हो लेकिन यह भी सत्य है कि जब भी बुनियादीढाँचे में परिवर्तन होता है या दबे कुचले लोगों को अधिकार मिलता है, तोसमकालीन जड़ समाज अपना आतंक फैलाता है, पर सकारात्मक परिवर्तन के लिए समाज वकल्याणकारी सरकार को डटकर मुकाबला करना ही होगा।’’

आदिवासी स्त्रिायाँ स्वावलम्बी होती हैं। वे खट-कमाकर अपना और अपने पूरे परिवार काभरण-पोषण करती हैं। ऐसी स्‍त्रियों को सम्पत्ति में हिस्से का अधिकार न होने के कारण परित्यक्ता या विधवा होने पर डायन कहक़र अपमानित, प्रताड़ितकरना या उनकी हत्या तक कर दिया जाना आदिवासी समाज में आज आम बात हो गयी है। डायन प्रथा पितृसत्ता वर्चस्ववादी रुझान के साथ-साथ स्‍त्रियों के सम्पत्ति में हक़ न होने के परिणामस्वरूप भी उपजी है। लड़की के विधवा होने पर उसे और उसकी सन्तान को मार दिया जाता है ताकि वे जीवनभर उनके भरण-पोषण काभार, जिसका हक़ आदिवासी स्‍त्रियों को प्राप्त है-उन्हें न उठाना पड़े।

हाल ही में झारखंड के महेश्वरपुर थाना में नारायण किस्कु की 65 वर्षीय विधवा पत्नी को डायन करार कर, उसके देवर हुरीराम ने उसकी ज़मीन हड़पने की नीयत से हत्या कर दी।

दरअसल आदिवासियों की ज़मीन दारू या कर्ज के बदले पुरुषसमाज ही ग़ैर-आदिवासियों को हस्तांतरित कर देता आया है। इसलिए उनका यह तर्ककि स्‍त्री को सम्पत्ति में हक़ मिल जाने से स्‍त्रियों द्वाराग़ैर-आदिवासियों के साथ विवाह करने पर ज़मीन का हस्तांतरण हो जाएगा, ग़लत है।इस तर्क की काट तो क़ानून में छोटा सा संशोधन लाकर की जा सकती है कि स्‍त्रीद्वारा ग़ैर आदिवासी से शादी करने की स्थिति में ज़मीन की हक़दार आदिवासीस्‍त्री और उसके बच्चे ही होंगे, उसका पति नहीं।

राजस्थान में अट्ठाईस गाँवों के आदिवासियों की एक पंचायत है, जिसे अट्ठाइसा कहते हैं।वहाँ मीणा पुरुष की कोई मीणा पुरुष हत्या कर दे तो उसे और उसके परिवार को देश निकाला की सज़ा दी जाती है लेकिन किसी मीणा पुरुष के हाथों किसी मीणास्‍त्री की हत्या हो जाती है, तो इस स्थिति में क़ानून तो अपना काम करेगा ही, किन्तु यह पंचायत बहुत ही उदार रुख अपनाते हुए गंगा-स्नान और सवा किलोभुने हुए चने व गुड़ तथा कबूतरों के लिए सवा किलो ज्वार की सज़ा सुनाती है।यानी वह पंचायत मीणा पुरुष की हत्या करने वाले मीणा समाज के पुरुष अपराधी व्यक्ति को ही गाँव से निष्कासित करने की सज़ा सुनाती है, स्‍त्री के हत्यारे को नहीं। यह सरासर पक्षपातपूर्ण तथा पुरुष-प्रधान समाज की ‘स्‍त्री-विरोधी’ मानसिकता का परिचायक है।

खासी लेखक जे. शांग्पिलाँग के अनुसार- ‘‘खासी समाज में स्‍त्रियॉं और पुरुष साथ-साथ नाचतेहैं और स्‍त्री अपने घर और जाति में महारानी का मुकुट धारण करती है, लेकिनरंगभूमि में खासी स्‍त्रियों को भी आँखें झुकाकर नृत्य करना पड़ता है। यहदर्शाता है कि स्‍त्रियॉं स्वयं को पुरुष से कमतर समझती हैं। पुरुषों के गोलाकृति में परिवार सहित नृत्य के मध्य कुमारियों का होना यह दर्शाता हैकि पुरुषों का कर्तव्य स्‍त्रियों की रक्षा करना है। इस रक्षा करने केकर्तव्य के पीछे स्‍त्री को सम्पत्ति मानने को बोध अधिक है बराबर मानने काकम।’’

असम के कार्बी समाज में स्‍त्रियों के श्राद्ध की रस्म कापूरा संचालन औरतों के हाथ में ही होता है। इसमें गाने वाली औरत की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है और उनका विश्वास है कि यही औरत मृतक को उसके असली घरयानी स्वर्ग में पहुँचाएगी।

हजांग समाज में शादी की सारी रस्मस्‍त्रियॉं ही करती हैं। आयारक्स महिलाएँ ही विवाह मंडप को सज़ाने से लेकर ‘उरूली’ करते हुए शादी की रस्म को पूरा करती हैं और विवाह मंडप में वर-वधुके फेरे भी कराती हैं।

राभा समुदाय में बराई पद्धति प्रचलित है।बराई का अर्थ होता है गोत्रा। यह गोत्रा माँ से ही सम्बन्धित होता है।सम्पत्ति के बँटवारे के समय पिता की सम्पत्ति पुत्र को और माँ की सम्पत्ति पुत्री को मिलती है लेकिन सन्तान माँ की उपाधि ही धारण करती है।

अरुणाचलप्रदेश के आपातानी समाज में ज्येष्ठ पुत्र को पिता की सम्पत्ति मिलती हैऔर पुत्री को माँ के आभूषण।

मिजो समाज में ऐसे तो औरतों की बहुतइज्ज़त होती है। झूम के समय अलग रखे गये उनके पहनावे के खास वस्त्रों को यदि कोई पुरुष छू दे तो उसे भारी दंड मिलता है। मिजो महिलाएँ हल भी चलाती हैं।यहाँ नाजायज बच्चा पैदा होने पर 40 रुपये का दंड भरकर बच्चों को पिता का नाम देने की सान प्रथा भी चलन में है यदि लड़की लड़के का नाम जानती है।

यह सही है आदिवासी स्‍त्रियॉं ग़ैर-आदिवासी स्‍त्री से कहीं अधिक स्वतन्त्रा होती हैं। पुरुषों के साथ-साथ खान-पान, नृत्य और सभी सामाजिक कार्यों वउत्सवों में वे पूरी साझेदारी करतीं हैं और पुरुषों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर घर बाहर दोनों काम संभालती हैं। एक तरफ तो आदिवासी समाज कहता है-‘‘देकर और बाँटकर खाना ही जीवन है, अकेले खाना मृत्यु’’ ‘‘जमा खोरी करनेवाला मरेगा और बाँटकर खाने वाला जिएगा’’ ‘‘अपने खानदान या मूल को कभी बुरा मत कहो।’’ दूसरी तरफ आज से नहीं पुरातनकाल से ही उसी आदिवासी पुरुष समाज में पुरुष शाऊनिज्म जड़ जमाये बैठा है। स्‍त्रियों के लिए काम का बँटवारा होया उनके प्रति दृष्टिकोण का, सभी में पुरुष का वर्चस्ववाद और अंहकार हावीरहता है। उदाहरणस्वरूप कुछ कहावतें प्रस्तुत हैं-

1. औरतों और केकड़ों का कोई धर्म नहीं होता।
2. कुत्तों और औरतों को अपनी मर्ज़ी के अनुसार भोंकने दो।
3. औरतों की अक्ल गाँव के पनघट से आगे नहीं जाती।
4. लापरवाह लम्पट औरत पूरे गाँव की प्रतिष्ठा धूल में मिला सकती है।
5. दो औरतों के झगड़े में मर्द कभी अपनी टांग न अड़ाये।
6. औरत पुरानी बाड़ की तरह बदल देने योग्य होती है।

एल. टी. लियानाखियाङते ने पुरुष अंहकार का एक दर्दनाक किस्सा मिजो कवयित्री पिहमुअकी का उदाहरण देते हुए बताया है। किस्सा यूँ है कि पिहमुअकी ने हर अवसर के लिए सुन्दर-सुन्दर गीतों की रचना करनी शुरू कर दी। मिजो समाज को लगा कि यदि ये स्‍त्री ही सारी कविताएँ रच देगी तो उनके लिए क्या बचेगा? फलस्वरूप उसकवयित्री को ज़िंदा दफना दिया गया। उस कवयित्री की संवेदनशीलता की यह पराकाष्ठा देखिये कि दफनाते वक़्त भी वह कविता में ही बोली-‘‘ऐ नवयुवको ज़रानफ़ासत से दफनाओ।’’

खियाङते आगे कई उदाहरण देते हुए अन्त में कहतेहैं-यह सच है कि औरतों पर आदिवासी क़बीलों में भी जुर्म होते रहे हैं लेकिनऔरतों ने केवल प्रतिरोध ही नहीं किया बल्कि अपनी बात पूरे तर्क के साथरखी। इतना ही नहीं आदिवासी वीरांगनाओं ने वक़्त आने पर समाज और देश को बचानेके लिए तीर भी संभाला और तलवार भी। झारखंड में मिकी, झानो, माकी, थिगी, नागी, स्नगीदई, कलीदई, चम्पी, साली, लेम्बू, डुंन डंग मुंडा, मंझिया मुंडा, और बनकर मुंडा की पत्नियाँ संथाल हूल, बिरसा उलगुलान, टाना आन्दोलन औररोहतासगढ़ के संघर्ष में शत्रुओं को मारकर ही मरीं। खियाँङते ने मिजो कीवीरांगनाओं में पिहमुअकी, रूपुईलियानी, दरपोङी, ललथेरी, लियानछयारी औरसैकुती आदि नामों का उल्लेख भी किया है, जो विदुषी भी थीं और वीरांगनाएँभी। झारखंड की कई वीरांगनाओं ने तो शत्रुओं को भगाया और अपने समाज और राजकी रक्षा की। ये रानियाँ नहीं थीं आम औरतें थीं।

मिजो कवयित्री ललथेरी का प्रेम जब एक सामान्य युवक चलथंगा से हो गया तो उसके भाइयों नेचलथंगा का सर काट डाला, तब ललथेरी मुखिया के घर के भीतर और बाहर ज़ोरों सेचिल्लाने लगी। उसने अपने कपड़े फाड़ दिए और अपनी माला के सुन्दर मनकों कोफेंककर आँगन में वस्त्रहीन होकर नंगी लेट गयी और कहा-

मैं कपड़े नहींपहनूँगी, माँ,/मेरा प्रिय ठंडा होकर गहरे नीचे लेटा है।

और उसनेअपने माता-पिता पर अपनी इच्छा के विरुद्ध अपने प्रेमी की हत्या करने का दोषमढ़ा-

कितने विचारहीन हो तुम, मेरी माँ और बाबा,/ अपने आँगन मेंचालथंगा का सिर स्थापित किया।

ये पद्य हमें कवि शैली के इस कथन की याद दिलाते हैं-‘‘स्‍त्रियों की स्वतन्त्रता ने ही पुरुष और स्‍त्री के पारस्परिक सम्बन्धों की कविता को जन्म दिया।’’

दारपोङगी के दोहोंमें भी स्‍त्री
का व्यक्तित्वबोध और स्वतन्त्रता पाठकों
कोस्पष्ट नज़र आती है। वह भी एक
विद्रोहिनी थी।

एक बार वहजादेङ कबीले की महिला मुखिया के शासन के अन्तर्गत थेंटलाँग दारपोङगी गयी।एक वरीय अधेड़ द्वारा उसका मेमना छीन लिया गया। दारपोङगी ने अपना घरेलू मेमना वापस पाने के लिए क़ानूनी दावा पेश किया। यह कहा गया कि मेमने को जब बीच में रखा जाएगा तो वह अपनी माँ की ओर बढ़ेगा। स्वभावतः मेमना दारपोङगी की बकरी के पास गया और उसका दूध पीने लगा लेकिन फिर भी मेमना गाँव के उस अधेड़ को दे दिया गया। इस पक्षपातपूर्ण न्याय के विरुद्ध दारपोङगी ने एक दोहे मेंअपनी आवाज़ उठायी-

तुम जादेंङ के मुखिया, तुम न्यायप्रिय होने का दावा करते हो,/ मैं कभी नहीं यकीन करूँगी कि लोग तेरे गाँव में अब सुकून पाएँगे।

इसलिए गाँव के शासन से तंग आकर उसने यह कहक़र दूसरे गाँव जाने का निर्णय लिया-

इस गाँव से बाहर जाऊँगी, निश्चय ही मैं
उचितन्याय नहीं है यहाँ शासन में।

यह सब दर्शाता है कि आदिवासी स्‍त्रियॉं अन्याय के प्रति सदियों से जूझती आ रही हैं और आज भी लड़ रहीहैं। आदिवासी स्‍त्रियों की व्यथा की बातें कहने को तो बहुत हैं, जो आज तकअनकही रही हैं पर अब वे ख़ुद बोलने लगी हैं। समाज भी जग रहा है और इसभेद-भाव के ख़िलाफ़ संगठित होकर आवाज़ भी उठा रहा है अब इसके लिए ज़रूरी है सरकार और समाज का सक्रिय सहयोग।

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