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03 दिसंबर 2010

इन विधेयकों का नाश हो


loksabha-विमल भाई

भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक और पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना विधेयक को चुनाव पूर्व पिछली संसद ने रात्रि 9.30 पर बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया था, किन्तु राज्यसभा में पारित न होने के कारण ये दोनों विधेयक कानून बनने से रह गये।

अब ये वर्तमान बजट सत्र या अगले सत्र में आनेवाले हैं। इन विधेयकों का जन-आंदोलनों ने पुरजोर विरोध किया है क्योंकि ये प्रभावित आदिवासियों, किसानों, मजदूरों, मछुआरों आदि के लिए खतरे की घंटी हैं। कल्याणकारी राज्य में पूंजीवाद को स्थापित करने के लिए इन विधेयकों में इस बात का पूरा इंतजाम किया गया है कि जमीनों को/ प्राकृतिक संसाधनों को कैसे पारंपरिक समुदायों और पारंपरिक अधिकृत व्यक्तियों के हाथों से छीनकर पूंजीपतियों को सौंप दिया जाए।

‘जन-आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय’ ने इन दोनों मुद्दों पर एक नीति का मसौदा बनाया था। मसौदे को जनवरी 2006 में श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने मंजूर किया, किन्तु उसे यूपीए सरकार की मंत्रिपरिषद ने पारित नही किया।

पूंजीपतियों का हित साधने के लिए बने ये विधेयक वास्तव में परियोजना प्रभावितों के हितों पर गंभीर रूप में बुरा असर डालेंगे। भूमि अधिग्रहण कानून बहुत पहले ही समाप्त हो जाना चाहिये था।

ब्रिटिशों ने अपने राज्य विस्तार को मजबूती देने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था। आजादी के बाद आई हर सरकार ने इसे और मजबूत बनाकर जमीन को उनके स्वामियों से छीना है, जबकि वे सदियों से उसके स्वामी रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित ये विधेयक सार्वजनिक हित के साथ-साथ निजी हित के लिए भी भूमि अधिग्रहण का प्रावधान करते हैं।

इनमें भूमि व आजीविका आधारित पुनर्वास की कोई गारंटी नही दी गयी है। मात्र नकद मुआवजा देने का प्रावधान है। मुआवजे संबधी शिकायतों के लिए एक प्राधिकरण बनाये जाने का भी प्रावधान है, जो कि शिकायतों के निवारण के लिए अन्यायपूर्ण होगा। विस्थापन को कमतर करने का कोई प्रावधान नहीं है और ग्रामसभा को परियोजना के नियोजन में कोई स्थान दिया गया है।

पिछले 20 वर्षों से ज्यादा समय से उठाई जा रही जन-आंदोलनों की मांगों को पूरी तरह दरकिनार करके भूमिअधिग्रहण (संशोधन) कानून 2007 के नये संशोधन में कंपनियों के हित में ‘सार्वजनिक उद्देश्य’, ‘ढांचागत परियोजनाएं’ तथा ‘व्यक्ति’ को नये तरीके से परिभाषित किया गया है। इस कारण ‘अत्यावश्यक धारा’ और मजबूत हुई है।

‘कानून सम्मत समझौता’ का नया शगूफा बिल्कुल पुराने जमाने की जमींदारी राज की याद दिलाता है। इसमें प्रयुक्त ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ की परिभाषा: संविधान की आज्ञा का उल्लंघन है। अभी तक ‘सार्वजनिक उददेश्य’ का हवाला देकर ही सब अधिग्रहण हुये हैं और अब ‘आम जनता के हित में उपयोगी अन्य कोई भी उद्देश्य’ को एक ‘व्यक्ति’ के लिए भी कर दिया गया है। जिसका व्यवहार में अर्थ निजी व्यक्तिगत और कंपनी से दिखता है। ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ में शहरी व ग्रामीण गरीबों के लिए सरकार द्वारा आवास या शैक्षणिक संस्थान, स्वास्थ्य और अन्य ऐसे संस्थानों को नहीं जोड़ा गया है।

इसमें ग्रामीण व शहरी गरीबों, भूमिहीनों और ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति स्पष्ट रुप से भेदभाव किया गया है। किसी कंपनी या व्यक्ति को किसी भी सीमा तक समझौते के आधार पर जमीन खरीदने की छूट है। ”कानून सम्मत समझौता” के अर्न्तगत 70 प्रतिशत खरीदी जाने वाली भूमि के लिए कोई पुनर्वास स्थापना की जिम्मेदारी नहीं डाली गई है।

क्या पुनर्वास व पुर्नस्थापना और मुआवजा के लाभ उनको मिल पाएगें जो शेष तीस प्रतिशत अनैच्छिक रूप से भूमिग्रहण के दायरे में आएंगे? जिनकी न्यूनतम संख्या पुनर्वास नीति के अनुसार 400/200 से कम होगी? फोकस पूरी तरह ढांचागत विकास पर है। जिसका लाभ व्यक्तियों/ कंपनियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मिलेगा, जबकि जमीन ली जाएगी आम जनता के हित के नाम पर।

प्रस्तावित विधेयकों में आपातकाल धारा 17 लगभग सभी ढांचागत परियोजनाओं के लिए लगाई जा सकती है। यानि कि सार्वजनिक उद्देश्य में जो साधारण व आपातकालीन जरूरतों के लिए अन्तर रखा गया था, वह अब पूरी तरह हटा दिया गया है। सामाजिक व पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन के बारे में कोई प्रक्रिया नहीं बनाई गई है।

ऐतिहासिक और कानूनी रूप से जिस ‘श्रेष्ठ अधिकार’ (एमिनैंट डोमिन) की धारणा पर यह कानून टिका है उसका इस्तेमाल खेतिहरों, भूमिहीनों की आजीविका के संसाधनों व समुदायों के द्वारा परम्परागत रूप से इस्तेमाल किये जाने वाले सभी प्राकृतिक संसाधनों को छीनने और गरीबों को ज्यादा गरीब बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। ‘मुआवजा राशि किसी भी तरह देकर, चाहे बैंक में जमा कराने के बाद ही जमीन पर कब्जा किया जायेगा’ इस वाक्य से जमीन छीनने की प्रकिया सुनिश्चित होती है।

यह प्रश्न भी बहुत संदिग्ध है कि लोगों को सुने जाने का अधिकार और सार्वजनिक उद्देश्य व अत्यावश्यकता आदि के एवज में जो बाजार मूल्य पर आधारित 75 प्रतिशत अतिरिक्त मुआवजा दिया जाएगा, वह अतिरिक्त मुआवजा कितना उचित होगा? अनुसूचित जनजाति व अन्य परम्परागत वनवासी को ‘रुचिकर व्यक्ति’ के तहत लाने का मकसद जंगल क्षेत्र को भी अधिग्रहित करना है।

खासकर खनन व जल-विद्युत परियोजनाओं के लिए, जिन्हें ढांचागत परियोजना में शामिल कर लिया गया है। अनुसूचित जनजाति व अन्य परम्परागत वनवासी (वन अधिकार में मान्यता) कानून 2006, पंचायत कानून, 1996 (अनुसूचित क्षेत्र का विस्तार) के प्रावधानों की साफ तौर पर अवहेलना की गई है।

प्रभावितों को शेयर व ऋण-पत्रों के रूप में हिस्सा देने की मंशा भले ही ऐच्छिक रूप में हो पर यह एक धोखे से ज्यादा कुछ नहीं। चूंकि ज्यादातर विस्थापित/ प्रभावित अनपढ़ होते हैं जो शेयर मार्किट के तौर-तरीके और उसकी गुत्थी को न समझने वाले होते हैं। यद्यपि भूमि अधिग्रहण से होने वाले लाभ अवश्य प्रभावितों को मिलने चाहिए, किन्तु शेयर और ऋण-पत्रों के रूप में नहीं।

एक सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अधिग्रहित की गई भूमि दूसरे सार्वजनिक उद्देश्य के लिए परिवर्तित नहीं हो, ऐसा कोई प्रावधान नहीं रखा गया है। आज तक इसी तरह से लोगों की जमीनों का दुरुपयोग हुआ है। इसके प्रभावों को थोड़े समय बाद ही देखा जा सकेगा।

इस कानून को और मजबूत बनाने के लिए जिस पुनर्वास नीति, 2006 को कानून बनाने की तैयारी है, उसमें क्या छूटा व क्या होना चाहिये, इस पर भी ‘संघर्ष 2007′ ने गंभीर टिप्पणी दी है। इसमें संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को नजरअंदाज किया गया है।

स्थानीय समुदाय की जरूरतें और क्षेत्रीय विकास की प्रकृति को भी अनदेखा किया गया है। अनैच्छिक विस्थापन को अवश्यंभावी माना गया है। बड़े स्तर के विस्थापन को न्यूनतम करने व अनैच्छिक विस्थापन को रोकने का उद्देश्य तो रखा गया है, किन्तु इसको निश्चित करने की कोई प्रक्रिया नहीं बनाई गई है। विकल्प आंकलन भी नहीं है।

पुनर्वास व पुनर्स्थापना का अर्थ है वैकल्पिक रूप में सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन स्तर को ऊंचा उठाना, जिसकी कोई निश्चितता इस प्रस्तावित कानून में नहीं है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 21 के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने जीवन के उच्च स्तर को बनाए रखने को आजीविका के अधिकार के साथ जोड़ा है। इस कानून की सबसे बड़ी खामी है- जमीन आधरित पुनर्वास का न होना और वैकल्पिक जीविका उपार्जन आधारित पुनर्वास की कोई गांरटी का न होना।

कृषि आबादी, वनवासी व घुमंतू जातियां तो बिना जमीन आधरित पुनर्वास के बर्बाद ही हो जाएंगी। यह कानून पूर्व से बेहतर वाले सिद्धांत के पूर्णत: विरुद्ध है। पुनर्वास स्थलों के बारे में बिल में कोई न्यूनतम स्तर तक नहीं बताया गया है। जैसे पुनर्वास स्थल का जीविका उपार्जन से संबंध ही न हो। न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य व यातायात के साधन आदि तमाम जीवन की आवश्यक सुविधाओं का कहीं जिक्र ही नहीं है। बिना किसी अन्य कानूनों/स्थानीयता को देखे-परखे, हर तरह कि जीवनशैली की आवश्यकताओं को नजर अंदाज करके मैदानी क्षेत्र में 400 व पहाड़ी क्षेत्रों में 200 की न्यूनतम सीमा रखना औचित्यहीन है।

खास करके उत्तर पूर्वी राज्य जहां आबादी की सघनता बहुत कम है। भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक 2007 के अन्तर्गत यह प्रावधान है कि 70 प्रतिशत जमीन परियोजना के लिए यदि स्वैच्छिक रूप से ली जाती है, तो उस स्थिति में 30 प्रतिशत भूमि भी परियोजना के लिए अनैच्छिक रूप से ली जा सकेगी। यहां मात्र अनैच्छिक 30 प्रतिशत रूप से ली जाने वाली जमीन के मालिकों पर ही पुनर्वास कानून लागू होगा।

पुनर्वास के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नही की गई है। परियोजना प्रभावित व विस्थापितों के साथ किए गए वादे व दायित्व न पूरा किए जाने की स्थिति में इस विधेयक में जुर्माना बहुत ही न्यूनतम रखा गया है। इससे कानून का उल्लंघन करने वालों को कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

इस कानून में शहरी विस्थापन की समस्या को मद्देनजर रखा ही नहीं गया है। जबकि शहरी परियोजनाएं खासकर ‘जवाहरलाल नेहरु शहरी नवीनीकरण योजना’ बड़े पैमाने पर शहरी गरीब आबादी, जो झुग्गी बस्ती में निवास करती है, उन्हें उजाड़ने पर मजबूर कर रही है। ये वर्ग पहले से ही गांवों में बेरोजगारी व प्राय: भूमिहीनता, कृषि की बढ़ती लागत के कारण शहरों में छोटे-मोटे रोजगार धंधे करके कठिन परिस्थिति में रहते हैं। मात्र ग्रामीण विस्थापन को सीमित नजरिये से देखते हुए कानून बनाया जा रहा है। विस्थापन की अन्य बड़ी स्थितियों जैसे राष्ट्रीय पार्क, अभयारण्य, खनन परियोजनाओं आदि को इस कानून के दायरे में लाए बिना कानून का अर्थ ही पूरा नहीं हो सकता।

पर्यावरण और मानवीय हकों के लिए संघर्षरत मेधा पाटकर के शब्दों में ‘मौजूदा विकास कितना भी लुभावना लगे, ये आम जनता के जीने के अधिकार पर संकट डाल रहा है। नैसर्गिक संसाधनों को लूटना, जमीन पर कब्जा जमाना, इन पर निर्भर समुदायों को उजाड़ना देश के लाखों लोगों पर विस्थापन और कंगाली थोपने के समान है।

करोड़ों परियोजना प्रभावितों, आदिवासी, दलित, किसान, कामगार और हाशिये पर रखे गये समुदायों को न्याय और सम्मान तभी दिया जा सकता है जब राष्ट्रीय विकास, विस्थापन और पुनर्वास अधिनियम बनाया जाये, जिसमें सुनिश्चित किया जाए कि लोकतांत्रिक विकास, विस्थापन और विकास का फल देश के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचे।

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