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03 दिसंबर 2010

सृष्टि सम्बन्धी आदिवासी मिथक ---हरि राम मीणा

सृष्टि सम्बन्धी आदिवासी मिथक

विकसित समाजों में सृष्टि की उत्पति के संबंध में चले आ रहे मिथक प्रगति की प्रक्रिया में धीरे धीरे समाप्त होते जा रहे हैं और जहां कहीं सुरक्षित हैं तो उनका परिमार्जित संशोधित व परिवर्तित रूप ही मिलता है। मौलिक स्वरूप कहीं न कहीं अपभ्रष्ट होता दिखाई देता है। इससे इतर आदिवासी समाजों के सृष्टि सम्बन्धी मिथकों में अधिकांश मौखिक परम्परा का हिस्सा बने हुए हैं । चूंकि इनके व्यवस्थित लिपिबद्ध प्रयास अपेक्षित स्तर पर नहीं हुए । यही वजह है कि समूह एवं अंचल के स्तर पर इन मिथकों में काफी विविधताएं पाई जाती हैं । यहां तक कि एक ही आदिवासी घटक़ में भी सृष्टि के उद्भव संबंधी एक से अधिक मिथक दिखाई देंगे । विभिन्न आदिवासी समुदायों में प्रचलित मिथकों को समेटने का यहां प्रयास किया गया है।

पूर्वोत्तर भारत

वैदिक ग्रंथो से लेकर हिन्दू परम्पराओं में पंच महाभूत के सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया है। इसी तरह सृष्टि की उत्पति को लेकर आदिवासी मिथकों में भी आधारभूत तत्वों का जिक्र मिलता है। जब हम पूर्वोत्तर भारत की बात करते हैं तो उदाहरणार्थ अरूणाचल प्रदेश में सृष्टि सृजन में जल, अण्डा, बादल, चट्टान, लकड़ी जैसे आधारभूत तत्वों को सृष्टि सृजन में सहायक माना गया है। इन तत्वों का सृष्टि से पूर्व स्वतः अस्तित्व बताया गया है। ये सब प्रथम सोपान के सृष्टिक्रम माने गये हैं। दूसरे चरण में पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि एवं अन्य सजीव रचनाओं को शामिल किया गया है। तीसरे चरण में रंग, दिशा, रूप, गंध माने गये हैं तथा चौथे-चरण में विवेक को शामिल किया गया है।
सृष्टि से पहले की अवस्था के बारे में पूर्वोत्तर भारत के आदिवासियों की यह मान्यता रही है कि पृथ्वी पर सर्वत्र जल ही जल था। आसमान में दो आदि-बंधु रहते थे। एक दिन उन्होंने आपस में बातचीत करते हुए यह सोचा कि अगर मनुष्य की उत्पत्ति की जावे तो वे जीवित कैसे रहेंगे क्योकि यहां तो पानी ही पानी है ? आकाश में कमल का एक फूल था। दोनों भाइयों ने उस फूल को नीचे फैंक दिया। फूल की पंखुडियां अन्नत जल राषि पर बिखर गई। फिर उन दोनों भाइयों ने चारों दिशाओं से वायु का आह्नान किया। पूर्वी दिशा से आने वाली वायु अपने साथ सफेद धूल लाई जिसे फूल की पंखुडियों पर बिखेर दिया। पश्चिमी हवा पीले रंग की धूल लाई, दक्षिणी हवा लाल तथा उत्तरी हवा काली धूल लेकर आई। यह सभी धूल आपस में कमल के फूल की पंखुड़ियों पर बिखर गई और इस तरह बहुरंगी पृथ्वी का सृजन हुआ।
एक मिथक कथा यह चलती है कि बाह्मण्ड में आरम्भ में केवल दो अण्डे थे। वे नरम तथा सोने की तरह चमकने वाले थे। वे एक जगह टिकने के बजाय चक्कर लगा रहे थे। अन्ततः वे आपसे में टकराये और फूट गये। एक अण्डे से पृथ्वी और दूसरे अण्डे से आकाश का सृजन हुआ। यह दोनों पत्नी और पति के रूप में सामने आये। दोनों के संभोग से वनस्पतियों तथा अन्य प्राणियों की रचना हुई।
अन्य मिथक-कथा यह है कि आरम्भ में पहले बादल थे। कोई पृथ्वी या आकाश नहीं था। बादल इनसे एक स्त्री पैदा हुई। वह बादल जैसी थी। उसने एक बालक व एक कन्या को जन्म दिया। वे दोनों बर्फ जैसे थे। जब वे जवान हुए तो दोनों ने शारीरिक सम्बंध बनाया जिससे इतंगा नामक कन्या का जन्म हुआ जो पृथ्वी कहलाई और एक पुत्र पैदा हुआ जो यूम अर्थात आकाश कहलाया। पृथ्वी कीचड़ तथा आकाश बादल जैसा था । इन दोनों ने भी शादी करली तथा इनबुंग नामक पुत्र को जन्म दिया जो वायु कहलाया इसके जन्म से तेज हवायें चली जिससे उसका पिता बादल उड़ता हुआ आसमान में चला गया और कीचड़नुमा पृथ्वी को सुखा दिया जो क्रमश: स्वर्ग और पृथ्वी के रूप में आविर्भूत हुए।
एक अन्य मिथक कथा के अनुसार आरम्भ में केवल एक चट्टान थी और चट्टान के चहू और जल ही जल था। वह चट्टान सजीव थी जो नरम ओर इधर उधर चलने फिरने की क्षमता रखती थी। इन चट्टानो से एक मादा चट्टान पैदा हुई जो जिससे एक अन्य चट्टान पैदा हुई जो नर चट्टान। दोनों के मध्य यौन संबंध स्थापित किये जाने पर इन दोनों की प्रथम सन्तान मछली के रूप में पैदा हुई तत्‍पश्‍चात उन्होंने एक बड़े मैंढक, फिर एक छोटे मैंढक और फिर एक थलचर मेंढक को जन्म दिया। इसके बाद उसने पानी में रहने वाले एक कीट को जन्म दिया और अन्ततः दूसरी मछली। फिर चट्टान माता नक्षत्रांे के बीच बने गगन ग्राम में चली गई। वहां भी उसने एक नक्षत्र से शादी की और कई बच्चे पैदा किये और उसके बाद मृत्यु को प्राप्त हो गई। उसके बच्चों ने अपनी मां के अन्तिम संस्कार के लिये चावल की लापसी बनाई। इस प्रक्रिया के दौरान उठी भाप से एक बादल उठा जिससे मिथुन (क्रोन बोस).... पैदा हुआ। मिथुन ने अपने सींगों से गढ्ढा खोदा जिससे सूखी धरती प्रकट हुई। तभी से वे नरम चट्टानें कठोर चट्टान बन गईं। और पृथ्वी पर अन्य सजीव निर्जीव रचनाएँ सृजित र्हुइं।
एक और मिथक पूर्वोत्तर भारत में प्रचलित है जिसके अनुसार सृष्टि से पूर्व सर्वत्र जल ही जल था। पानी के ऊपर सर्व प्रथम एक वृक्ष पैदा हुआ जिसे पैरीकामुला कहा गया। समय के साथ एक कीडा उस पेड़ पर जन्मा और उसने पेड़ की लकड़ी को खाना षुरू किया। लकड़ी के कण पानी पर फैले और उसके बाद संसार की सृष्टि हुई। तद्पष्चात वह पेड़ बूढा होकर जमीन पर गिर गया। उसके नीचे के हिस्से की छाल से संसार की त्वचा और ऊपर की हिस्से वाली छाल से आकाश की त्वचा बनी। पेड़ का तना चट्टानों में परिवर्तित हो गया ओर शाखाएं पर्वतों में।
एकल मानव प्राणी से पैदा हुई सृष्टि की मिथक एक अन्य कथा सामने आती है जिसके अनुसार क्रतमचालटू नामक पृथ्वी मनुष्य जैसी थी जिसके सिर, भुजाएं, पैर और बड़ा पेट था। उसके पेट पर नवजात मनुष्य रहने लगे। पृथ्वी ने सोचा इन प्राणियों की वजह से हिलडुल भी नहीं सकती। ऐसा करूंगी तो ये गिर कर मर जायेंगे। उसने स्वयं मरना तय किया। उसके शरीर के पृथक-पृथक अंग संसार के अलग अलग खण्ड बने तथा दोनों आंखें सूरज व चांद।
पूर्वोत्तर प्रान्तों के आदिवासियों में सृष्टि संबंधी एक बात सामान्यतः पाई जाती है कि वे सब सृष्टि की पंच सोपानी उत्पत्ति में विश्‍वास करते हैं। यह भी एक सामान्यीकृत निष्कर्ष कहा जा सकता है कि कमोबेश सभी मनुष्यों की उत्पत्ति पृथ्वी व आकाश के पत्नी व पति रूप से पैदा होना पाया गया है।
यह भी एक किंवदन्ती चली आ रही है कि प्रथम मानव प्रजाति को नष्ट कर दिया था। फिर सम्पूर्ण पृथ्वी को बारिश में अच्छी तरह धोया तब जाकर मानव जाति की पुनः रचना हुई। पूर्वोत्तर के सभी आदिवासियों में यह मिथक पूरी तरह बसा हुआ है कि आदि काल से मनुष्य, अन्य प्राणियों तथा अदृष्य आत्माओं के बीच गहरा सम्बंध था। कहा जाता है कि एक स्त्री ने मानव शिशु और बाघ शिशु के जुड़वां बच्चों की तरह जन्म दिया। उस जमाने में जानवर भी आपस में खुल कर बातें किया करते थें। इस तरह की कई कहानियां सुनी जाती हैं कि मनुष्यों द्वारा देवताओं की आत्माओं व अन्य प्राणियों यहां तक कि पेडों और पत्तियों से भी शादी की जाती थी। यह भी विष्वास चला आ रहा है कि आदि-युग में विवेक केवल मनुष्य के पास ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के पास भी था। शास्त्रविदियों से प्रथम शास्त्रीय स्थापनाओं से अलग आदिवासियों की यह मान्यता है कि किसी एक ईश्‍वर ने सृष्टि की रचना नहीं की, बल्कि अस्तित्व में रहे भौतिक पदार्थों से सृष्टि उपजी। अर्थात भौतिक तत्वों से सजीव व निर्जीव दोनो किस्‍म की रचनाएं सामने आईं जो प्रारम्भ में एक ही थी। उल्लेखनीय है कि जल की महिमा प्रमुखता से सामने रही है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है कि भौतिक पदार्थ से ही सजीव संसार सृजित हुआ। ऐसा ही वैज्ञानिकों का मत भी है।
खासी आदिवासियों में जब भी कोई भावनात्मक या विचलन के क्षण आते हैं तो वे एक अनुष्ठान करते हैं, जिसमें कोड़ी, चावल, अण्डा व मुर्गी का इस्तेमाल करते हैं। इन सभी को अनाभिव्यक्त सृष्टि के प्रमुख तत्व माने गये हैं यथा अण्डे को आधार तत्व, कोड़ी को जल, मुर्गी को पृथ्वी तथा चांवल को प्राण। अंडमान के औंगी आदिवासियों में हड्डी को पूर्वजों की निशानी के रूप में मानते हुए उसे आभूषण की तरह गले में धारण किया जाता है। उनकी मान्यता है कि इसकी अस्थि-गंध से ही उनका अस्तित्व उनके रिहायशी टापू पर और प्रेतात्माओं का वास उनके आसमान में रहता है, जो उनकी रक्षा करती हैं। प्रेतात्मा को वे अपना सृष्टा मानते हैं। नागा एवं मिरि आदिवासी दो लोकों की अवधारणा में विश्‍वास करते हैं-एक, जीवित लोक तथा दूसरा मृतकों का लोक। सृष्टि के बारे में उनकी अवधारणाएँ पूर्वानुसार ही हैं ।
(उक्त जानकारी श्री बैद्यनाथ सरस्वती के आलेख पर आधारित है)

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