*भारत में लगभग 6 करोड 78 लाख लोग आदिवासी हैं (sanskrut में आदिवासी का अर्थ
होता है किसी जगह के मूल निवासी). भौगोलिकता की नजर से देखे तो ये देश भर में
बिखरे हुए हैं और कलचर में परस्पर भिन्न भिन्न है. यह माना जाता है कि ये लोग
प्रबल और प्रभावशाली आर्यों के भारत आगमन के पहले से ही यंहा रहते चले आए है.
इनकी अपनी एक अलग पहचान है जिसके प्रमुख पहलू है: अपना अलग धर्म, व्यक्ति का
अलग समुदाय और प्रकुति से गहरा जुडाव, धन और बाज़ार पर बहुत ही कम निर्भरता,होता है किसी जगह के मूल निवासी). भौगोलिकता की नजर से देखे तो ये देश भर में
बिखरे हुए हैं और कलचर में परस्पर भिन्न भिन्न है. यह माना जाता है कि ये लोग
प्रबल और प्रभावशाली आर्यों के भारत आगमन के पहले से ही यंहा रहते चले आए है.
इनकी अपनी एक अलग पहचान है जिसके प्रमुख पहलू है: अपना अलग धर्म, व्यक्ति का
सामाजिक स्तर पर स्वप्रशासन की लंबी परंपरा और एक समतामूलक कलचर जिसमें
हिन्दुओं की भेदभावपूर्ण, कठोर जाति प्रथा के लिय- कोई स्थान नहीं है.*
हिन्दू और मुस्लिम शासन के दौरान आदिवासियों के पारस्परिक संबंधों के बारे में
बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. अंग्रेजी उपनिवेश की स्थापना से पहले
*आदिवासी*इलाकों में स्वशासन था और वे किसी भी बाहरी शासन का प्रतिरोध
करते थे.
आदिवासियों के *जीवन* में बडे परिवर्तन भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के
आगमन के बाद ही शुरु हुए. उनके भारत आने का उद्देश्य यंहा के सर्वाधिक लाभदायक
व्यापार पर कब्जा जमाना ही था, इसलिये अंग्रेज *आदिवासी* इलाकों पर कब्जा करना
चाहते थे जो प्राकुतिक और खनिज सम्पदा के भंडार थे. तरह तरह कायदें- कानूनों के
जरिये *आदिवासी* इलाकों पर नियंत्रण कायम किया गया और आदिवासियों को मजदूर वर्ग
में तब्दील कर दिया गया क्योंकि व्यापार और बाज़ार पर आधारित नई व्यवस्थाएं आकारहिन्दुओं की भेदभावपूर्ण, कठोर जाति प्रथा के लिय- कोई स्थान नहीं है.*
हिन्दू और मुस्लिम शासन के दौरान आदिवासियों के पारस्परिक संबंधों के बारे में
बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. अंग्रेजी उपनिवेश की स्थापना से पहले
*आदिवासी*इलाकों में स्वशासन था और वे किसी भी बाहरी शासन का प्रतिरोध
करते थे.
आदिवासियों के *जीवन* में बडे परिवर्तन भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के
आगमन के बाद ही शुरु हुए. उनके भारत आने का उद्देश्य यंहा के सर्वाधिक लाभदायक
व्यापार पर कब्जा जमाना ही था, इसलिये अंग्रेज *आदिवासी* इलाकों पर कब्जा करना
चाहते थे जो प्राकुतिक और खनिज सम्पदा के भंडार थे. तरह तरह कायदें- कानूनों के
जरिये *आदिवासी* इलाकों पर नियंत्रण कायम किया गया और आदिवासियों को मजदूर वर्ग
ले रही थी. अंग्रेजों नें भारत से तैयार वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यात आरंभ
कर दिया. कहना न होगा कि ब्रिटेन में औद्दौगिक क्रांति के उत्थान में एक कारण
यह निर्यात भी था. औपनिवेशिक निंयत्रणों के कारण आदिवाशियों में विद्रोह फ़ैलकर दिया. कहना न होगा कि ब्रिटेन में औद्दौगिक क्रांति के उत्थान में एक कारण
गया. 1772 में मल पहाडिया की बगावत से लेकर सत्ता के खिलाफ़ 75 से भी ज्यादा
प्रमुख विद्रोह हुए. फ़िर भी अंग्रेजों के दमन चक्र को न रोका जा सका.
उपनिवेश- विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन में उतरते हुए आदिवासियों की मंशा थी कि
उन्हें औपनिवेशिक बंधनों और शोषण से मुक्ति मिलेगी. सत्ता के हस्तांतरण के बाद,
अधिकाधिक आय प्राप्त करने की सरकारी नीति के चलते *आदिवासी* वन मजदूरों में बदल
गये. कई राज्यों नें छोटे- छोटे वन उत्पादकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और
वन विभाग निगमों ( एफ़. डी. सी.) की स्थापना कर दी. 1878 में राज्य के स्वामित्यगये. कई राज्यों नें छोटे- छोटे वन उत्पादकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और
में केवल 36,260 वर्ग कि. मी. में वन था. जो 1890 में 196,840 वर्ग कि. मी. तक
और 1970 में 750,000 वर्ग कि. मी. तक बढा दिया गया. वनों से प्राप्त राजकोषीय
आय रु. 56 लाख से बढकर 1970 में 13,000 करोड हो गई. छोटे वन उत्पादनों से
निर्यात आय 1960-61 में रु. 95 करोड थी जो 1990-91 में बढकर रु. 4198 करोड हो
गई . यह भारत की कुल निर्यात आय का लगभग 13 प्रतिशत है.
इस विपुल संपदा दोहन से आदिवासियों की आर्थिक स्थिति और खराब होती गई. उनकी
मजदूरी 4 रु. से 22 रु. से कभी आगे नहीं बढ पाई है. आदिवासियों के आहार का 80%
हिस्सा वनों से आता है और वे पुरातन समय से लकडी, घास, ओषधि, वनस्पतियों, राल
और टेनिन जैसे उत्पादन इकट्ठा करते थे. आज वे ही वनपाल शोषित मजदूरों में
तब्दील हो गए है. 1972 के वन्य *जीवन* अधिनियम( वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्शन एक्ट)और 1970 में 750,000 वर्ग कि. मी. तक बढा दिया गया. वनों से प्राप्त राजकोषीय
आय रु. 56 लाख से बढकर 1970 में 13,000 करोड हो गई. छोटे वन उत्पादनों से
निर्यात आय 1960-61 में रु. 95 करोड थी जो 1990-91 में बढकर रु. 4198 करोड हो
गई . यह भारत की कुल निर्यात आय का लगभग 13 प्रतिशत है.
इस विपुल संपदा दोहन से आदिवासियों की आर्थिक स्थिति और खराब होती गई. उनकी
मजदूरी 4 रु. से 22 रु. से कभी आगे नहीं बढ पाई है. आदिवासियों के आहार का 80%
हिस्सा वनों से आता है और वे पुरातन समय से लकडी, घास, ओषधि, वनस्पतियों, राल
और टेनिन जैसे उत्पादन इकट्ठा करते थे. आज वे ही वनपाल शोषित मजदूरों में
में 147 वन्य *जीवन* अभयारण्यों और 75 राष्ट्रीय अभयारणों की योजना ने तो
आदिवासियों को अपनी जीविका के कार्यकलापों को और सीमित करने या पूरी तरह त्याग
देने पर मजबूर कर दिया.
भारत में वैश्वीकरण के बढ्ते खतरे ने जंहा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से
स्थानीय उत्पादन में कमी आई और शिक्शा व स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सेवाओं का
निजीकरण बढने लगा . अस्पतालों की जगह निजी नर्सिंग होम ने ले ली और निजी स्कूल
पनपने लगे . ऎसे अनेक सामाजिक कामों से राज्य का दूर हटते जाने का असर आम आदमी
को प्राप्त लाभों में कमी के रुप में सामने आयेगा. इससे मौजूदा तनाव और बढेगा.
उदारीकरण- अर्थव्यवस्था के निजीकरण के लिये देशी पूंजी को अधिकाधिक छूट देना और
दूसरी है वैश्वीकरण- विदेशी पूंजी के प्रवाह के रास्ते से सभी रुकावटे दूर
करना. ये दोनों कारण देश के सभी हिस्सों में संतुलित निवेश में सहायक नहीं है
बल्कि इनके जरिये पूंजी पहले से विकसित उन्हीं प्रदेशों की ओर प्रवाहित होगी
जंहा से तुरंत लाभ की संभावना हो. वे इलाकें जंहा अधिकांश *आदिवासी* रहते है.
इस प्रक्रिया से अछूते हैं. कहना न होगा कि उदारीकरण उनकी तखलिफ़ों को ओरआदिवासियों को अपनी जीविका के कार्यकलापों को और सीमित करने या पूरी तरह त्याग
देने पर मजबूर कर दिया.
भारत में वैश्वीकरण के बढ्ते खतरे ने जंहा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से
स्थानीय उत्पादन में कमी आई और शिक्शा व स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सेवाओं का
निजीकरण बढने लगा . अस्पतालों की जगह निजी नर्सिंग होम ने ले ली और निजी स्कूल
पनपने लगे . ऎसे अनेक सामाजिक कामों से राज्य का दूर हटते जाने का असर आम आदमी
को प्राप्त लाभों में कमी के रुप में सामने आयेगा. इससे मौजूदा तनाव और बढेगा.
उदारीकरण- अर्थव्यवस्था के निजीकरण के लिये देशी पूंजी को अधिकाधिक छूट देना और
दूसरी है वैश्वीकरण- विदेशी पूंजी के प्रवाह के रास्ते से सभी रुकावटे दूर
करना. ये दोनों कारण देश के सभी हिस्सों में संतुलित निवेश में सहायक नहीं है
बल्कि इनके जरिये पूंजी पहले से विकसित उन्हीं प्रदेशों की ओर प्रवाहित होगी
जंहा से तुरंत लाभ की संभावना हो. वे इलाकें जंहा अधिकांश *आदिवासी* रहते है.
बढाएगा. संपन्न और विपन्न के बीच खाई और चौडी होगी और छ्त्तीसगढ, झारखंड,
पश्चिम उडीसा और उत्तरपूर्वी भारत में गरीबी बढनें की संभावना और बढेगी.
अब चूंकी आदिवासियों की बस्तियोंवाले देश के 20% हिस्से में 70% खनिज और बहुत
ज्यादा वन एंव जल स्त्रोत है इसलिये उन पर राष्ट्रपारीय (ट्रान्सनेंशनल) और नव
उपनिवेशवादी हितों की नज़र अवश्य पडेगी. अतः आदिवासियों संबंधी सारे नियमों कोपश्चिम उडीसा और उत्तरपूर्वी भारत में गरीबी बढनें की संभावना और बढेगी.
अब चूंकी आदिवासियों की बस्तियोंवाले देश के 20% हिस्से में 70% खनिज और बहुत
ज्यादा वन एंव जल स्त्रोत है इसलिये उन पर राष्ट्रपारीय (ट्रान्सनेंशनल) और नव
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हटाने के प्रयास किये जायेंगे जो बाजारु ताकतों को निर्बाध स्वतंत्रता देने कीप्रकिया का ही एक हिस्सा है- और उदारीकरण और वैश्वीकरण के विस्तार के लिए
आवश्यक है.
इससे राज्य की ओर से दमनकारी कार्रवाई की संभावना बढती जा रही है. जिसके ताजा
उदाहरण नन्दीग्राम, सिंगुर, पेन-पनवेल तथा लालगढ की लडाई में हजारों आदिवासियों
की मौतें.
दूसरी ओर *आदिवासी* भी अपनी स्थिति के प्रति सचेत है और अपने हितों के लिये
संघर्ष करने के लिये तैयार हो रहे है.
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