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03 दिसंबर 2010

सिर्फ उड़ीसा में 20 लाख हुए विस्थापित

posco-ऋतेश पाठक

आजादी के बाद से ही विकास के पश्चिमी माडल की नकल करते हुए पूरे देश में विशालकाय परियोजनाएं लायी गयीं। इन योजनाओं से विकास का लक्ष्य कहां तक पाया जा सका, इस तथ्य का सटीक आंकलन होना अभी बाकी है। लेकिन, जिन परिवारों और समुदायों को अपने विस्थापन से इसकी कीमत चुकानी पड़ी, उनकी पीड़ा का स्पष्ट आंकलन किया जा सकता है।

कहीं ऊंचे बांधों के कारण, कहीं शहरों के सौदर्यीकरण के कारण, तो कहीं उद्योगों के नाम पर देश के हर हिस्से में लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है। इन्हीं परियोजनाओं की कड़ी में एक ज्वलंत उदाहरण उड़ीसा का है। हाल ही में यह राज्य सुर्खियों में इसलिए आया क्योंकि यहां ग्रामीणों ने कुछ विदेशी इंजीनियरों को बंधक बना लिया। घटना जगतसिंहपुर जिले की है, जहां पोस्को नामक कोरियाई स्टील कंपनी को इस्पात कारखाना बनाने की अनुमति दी गयी है।

पोहैंग स्टील कंपनी की इस परियोजना के लिए कुल 4,500 एकड़ जमीन अधिग्रहित की जानी है जिससे 11 गांवों के 3500 परिवारों को विस्थापित होना पड़ेगा। यहां गौर करने की बात यह है कि ऐसी ही एक और परियोजना के लिए लगभग 4000 एकड़ जमीन एक अन्य इस्पात सयंत्र के नाम पर बेकार पड़ी हुई है।

पचास के दशक में सेल (स्टील अथारिटी आफ इंडिया लिमिटेड) द्वारा राउरकेला इस्पात सयंत्र के लिए 15000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया था। इसमें से 4000 एकड़ जमीन आज भी खाली पड़ी है। इस जमीन को वापस देने की मांग को लेकर विस्थापितों ने इस साल जनवरी में प्रदर्शन भी किया था। अपनी मांगो को लेकर विस्थापितों का प्रदर्शन आज भी जारी है। जिन विस्थापितों की जमीन पर सेल का साम्राज्य खड़ा है, उनके अस्तित्व की, उनकी सलामती की चिंता सेल को नहीं है। लेकिन उसका विज्ञापन खूब चल रहा है, ”कुछ बरकरार रहेगा तो सिर्फ स्टील।”

बार-बार सवाल यही उठता है कि विकास के नाम पर बनायी गयी इन परियोजनाओं का लाभ उन लोगों को क्यों नहीं मिलता जिनकी बर्बादी की बुनियाद पर परियोजनाएं खड़ी की जाती हैं। साथ ही, परियोजनाओं के लिए स्थानादि की स्वीकृति से पहले उनकी सहमति क्यों नहीं ली जाती है। उड़ीसा के ही कलिंगनगर में कुछ आदिवासियों को इस वर्ष की शुरुआत पर नौ लाशों का तोहफा मिला था, जब वे सेज के तहत टाटा की परियोजना के लिए बलपूर्वक हो रहे भू-अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे।

विस्थापितों को लाभ की बाबत पोस्को प्रबंधन का कहना है कि नौकरियों में 98 प्रतिशत पदों पर भारतीयों की बहाली होगी। लेकिन शेष 2 प्रतिशत का राज उनकी मंशा को जाहिर करता है। प्रबंधन ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ये 98 प्रतिशत पद तकनीकी और प्रबंधकीय पदों के अलावा होंगे। यानि, सस्ते श्रमिक भारतीय रहेंगे और मोटी पगार वाले सी.ई.ओ. और इंजीनियर कोरिया से बुलाये जाएंगे।

अब तक के सबसे बड़े प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंतर्गत लगभग 51000 करोड़ की लागत वाली इस परियोजना के लिए निर्माण कार्य कंपनी अपनी 40वीं सालगिरह के मौके पर 1अप्रैल 2008 को शुरू करना चाहती है। लेकिन परियोजना का विरोध करने वालों ने अपनी ताकत की आजमाइश शुरू कर दी है। कोरियाई इंजिनियरों को बंधक बनाना इसी विरोध का एक हिस्सा था। उन्हें छुड़ाने के लिए प्रशासन को वादा करना पड़ा कि अब वह दुबारा गांव में नहीं आएंगे। पोस्को प्रतिरोध समिति के नाम से गठित संगठन मुख्य रूप से इसका विरोध कर रहा है।

कुछ गांवों के परिवारों के विस्थापन से भी भयावह तस्वीर इस परियोजना के गर्भ में छिपी है, जो स्थानीय लोगों से बातचीत के बाद सामने आती है। जिस क्षेत्र में पोस्को परियोजना को मंजूरी दी गयी है वहां सिंचाई और पीने के पानी का अभाव है। वहां सिर्फ तीस प्रतिशत कृषि भूमि ही सिंचित है। सरकार और पोस्को प्रबंधन के बीच हुए हुए मसौदे के अनुसार परियोजना के लिए आवश्यक पानी स्थानीय स्रोतों से उपलब्ध कराया जाएगा। ऐसे में वहां के किसानों और आम जनता का क्या होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। एक तथ्य यह भी है कि विस्थापन का दंश केवल उन्हें ही नहीं झेलना पड़ता जिनकी जमीनें छीन ली जाती हैं। पशुपालन, वनोपज एवं मछलीपालन जैसे कई अन्य पेशों से गुजारा करने वालों को भी विस्थापन की पीड़ा झेलनी पड़ती है।

आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ उड़ीसा में ही अब तक 20 लाख से ज्यादा लोग कथित विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। तकरीबन 5 लाख लोग शारीरिक अपंगता का शिकार हो चुके हैं। इनमें से अधिकतर लोग औद्योगीकरण और शहरों के सौंदर्यीकरण के कारण विस्थापित हुए हैं। इनके पुनर्वास के लिए कोई स्पष्ट नीति व मानक न तो सरकार के पास है और न ही उसकी भागीदार संस्थाओं के पास। आखिर में फिर वही सवाल उठता है कि आलीशान महलों की नींव रखने वाले कमजोर लोग जाएं तो जाएं कहां?

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