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03 दिसंबर 2010

जंगल, आदिवासी, नक्सल, और वन्य जीव:

जंगल, आदिवासी, नक्सल, और वन्य जीव:
छतीसगढ़ अतीत में दक्षिण कोशल के नाम से जाना जाता था, रामायण के
अनुसार यह क्षेत्र राम के पिता दशरथ के आधीन था। और श्रंगी रिषि जैसे आर्य मह्त्माओं का निवास रहा, यह क्षेत्र, यहाँ के जंगलों में आर्य-आनार्यों का बहुत सा इतिहास व्याप्त है, जो तमाम पौराणिक रचनाओं व विदेशी यात्रियों के विवरणों में मिलता है, जंगलों और जंगली जीवों का यह बसेरा जिसमें भारत वर्ष की आदि संस्कृतियां बसती आयी, बिना किसी से कुछ लिए! किन्तु विदेशी शासन से लेकर आजतक लोग इन जंगलों और वहाँ के रहने वालों को अपने हितों में इस्तेमाल करते रहे! इसके बावजूद ये लोग समाज की मुख्य धारा से नही जुड़ पाये या जोड़े नही गये ! नतीजा आप सब के सामने है! प्राकृतिक संशाधनों का दोहन ब्रिटिश भारत से लेकर आजतक होता रहा, इसका नुकसान वन्य-जीवों और आदिवासियों दोनों पर पड़ा। जंगल सिकुड़ते चले गये, और जमीने बाहर के लोगों को या सरकारी इस्तेमाल में ली जाती गयी, व्यवसायिक पौधारोपड़ कराये गये, जिनसे इन आदिवासियों को कोई लाभ नही है! अब सरंक्षण नीतियों में भी जंगल के आदमी और और नियमों में सामंजस्य नही है, कमोवेश अब वही लोग जो जंगल से उतना ही लेते थे, जितने में उनकी जिन्दा रहने की बुनियादी जरूरते पूरी हो जाती थी, अब वही लोग इन जंगलों के प्रति वह भाव नही रख पा रहे है, कारण सभी को स्पष्ट है।
इतिहास के आइने में नस्लों के अतीत को देखे तो यही तो सबसे पौराणिक भारतीय हैं, और इन्हे ही बेदखल रखा गया मुख्य धारा से!
अभी बहुत समय व्यतीत नही हुआ जब आदिवासी और वन्य प्राणी आपसी समरसता के साथ जंगल में निवास किया करते थे। १९ वी सदी के प्रारम्भ में अंग्रेजों ने इमारती लकड़ी की पूर्ति के लिए वृहद स्तर पर सागौन का रोपण शुरू किया। आजादी के बाद भी आज तक हम उन्ही नीतियों को लेकर चल रहे हैं। लाखों एकड़ प्राकृतिक वनों को काटकर उसका कोयला बना दिया गया। प्राकृतिक वनों में जो आज लुप्त होने की कगार पर है, आदिवासियों के लिए भी और वन्य प्राणियों के लिए भी भरपूर भोजन उपलब्ध था, यदि आप चंद बचे हुए नेचुरल फ़ारेस्ट में जाए तो वहाँ की जैव-विविधिता और सुन्दरता आपका मन मोह लेंगी।

हांलाकि अंग्रेजो ने अन्य प्रजातियों के भी १५ से २० % वृक्ष रखने के नियम बनाया था। लेकिन भारत में जहाँ शहरों में नियमों का पालन नही होता वहाँ वन में जहाँ आदिवासियों और शिकारियों को छोड़ कर यहाँ तक कि वन विभाग के अधिकारी भी नही जाते वहाँ नियमों का कितना पालन हो रहा होगा। यह सभी जानते हैं!

आज आदिवासी विद्रोह कर चुका है, और बाघ एंव उसकी प्रजा खत्म होने के कगार पर है। और महापुरूषों के रूप मे जन्म ले चुके अधिकारियों जिनकी ताकत और दौलत अकल्पनीय है, वह पर्यावरण की चिन्ता करे यह सोचना भी बेकार है। इन महानुभाओं ने बांधवगढ़ जैसे महत्वपूर्ण बाघों के आवास में सागौन को तो छोड़िए नीलगिरी तक का रोपण करवा रखा है।
ये वही अधिकारी है, जो आसाम के चाय के बागानों और उनके जैसे ही सागौन के जंगलों को बड़े शान से भारत के हरित भू-भाग में गिनते हैं। आज सरगूजा के जंगलों में रहने वाले हाथी ग्रामीनों पर कहर ढाह रहे हैं। क्योंकि प्लान्टेशन के जंगलों में उनका पेट भरने के लिए कुछ भी नही है।
एक तरफ़ हमने अन्धाधुंध विकास के नाम पर नवजवान आदिवासी पीढ़ी को टी०वी० मोटरसाइकल एंव अन्य सुविधाओं का स्वप्न दिखा दिया और दूसरी ओर उनके रिहाइसी इलाकों को ऐसा अकल्पनीय नुकसान पंहुचा दिया है, जिससे न केवल उनका पेट भरता था बल्कि जिसने हजारों सालों तक भारत भूमि को उपजाऊ बनाये रखा था।

बाघ जो उस पर्यावरण तन्त्र का धोतक है, जो हमारी जीवन रेखा है, आज अपने अस्तित्व की आखिरी घड़िया गिन रहा है, आज बचा हुआ है तो इस लिए कि राष्ट्रीय उद्द्यानों से हटे हुए गांवों की जमीन ने जो घास के मैदान बन चुकी है, उसकी भोजन श्रंखला को आखिरी सहारा दिया हुआ है।
पर अब उसका बच पाना मुश्किल है, हजारों सालों से उसके मित्र रहे आदिवासी अपनी भूख मिटाने के लिए वन्य प्राणियों के शिकारी बन गये हैं। और संसार चंद जैसे खिलाड़ी उनको चंद रूपये थमा कर मनचाहा शिकार करवा लेते हैं।
किन्तु आदिवासी अब करे क्या? जो प्राकृतिक जंगल उसे खुशहाल रखते थे। वो अब है नही, और जो सागौन के जंगलों से उसे खाना तो दूर जलाऊ लकड़ी भी नही मिलती, अत: अब वो शिकारी है, कभी बाघ का कभी पुलिस वालों का और उसके घर में उसको रोक पाना कठिन है!

अगर आप ने हिसाब लगाया है, तो आप भी समझ जायेंगे कि हर साल १००० रूपये देने वाला महुआ अच्छा है या ८० साल में १०,०००० देने वाला सागौन! पर दिक्कत यह है कि महुए से १००० रूपये मिलते है आदिवासी को और सागौन से १०,०००० मिलेंगे अधिकारियों और उनके स्वंमसेवक ठेकेदारों को!
अब सरकार ने गाँव-गाँव में वन रक्षा समिति बना दी है, लेकिन क्या अपने कभी किसी किसान को बंजर खेत की रखवाली करते देखा है, नही न!तो फ़िर आदिवासी सगौन और नीलगिरी की रखवाली क्यों करने लगा।
आज बाघ विलुप्त हो रहे है, तो इसकी वजह शिकार नही है, बल्कि इस वजह से कि उनकी भोजन श्रंखला का पेट भरने के लिए जरूरी प्राकृतिक वनों को हमने उजाड़ दिया है और प्लान्टेशन के जंगलों में भोजन की कमी के कारण वह बाघों की बड़ी आबादी को सहारा नही दे सकता।
एक ऐसा जानवर जो हर दो वर्षों में तीन से चार बच्चों को जन्म देता है, भले ही उनकी मृत्युदर अधिक हो पर यह कारण नही हो सकते, कि कान्हा के जगलों में पिछले कई दशकों से बाघों की संख्या ८० से १०० के बीच बनी रहे, कारण स्पष्ट है, जितना भोजन उतने जानवर।
अरुणेश सी दवे* (लेखक छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते है, पेशे से प्लाईवुड व्यवसायी है, प्लाई वुड टेक्नालोजी में इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा।वन्य् जीवों व जंगलों से लगाव है, स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक, मूलत: गाँधी और जिन्ना की सरजमीं से संबध रखते हैं। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता, इनसे aruneshd3@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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