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03 दिसंबर 2010

*आदिवासी*, नक्सली और भारतीय लोकतंत्र * रामचंद्र गुहा* अनुवादः अभिषेक श्रीवास्तव

*आदिवासी*, नक्सली और भारतीय लोकतंत्र
* रामचंद्र गुहा*
अनुवादः अभिषेक श्रीवास्तव
यह आलेख इस तथ्य को स्थापित करता है कि भारत में विकास और लोकतंत्र का लाभ छह
दशकों के दौरान समूचे *आदिवासी* समाज को सबसे कम प्राप्त हुआ है और उसने सबसे
ज्यादा गंवाया है. लेख में इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि यह तबका दलितों से
भी ज्यादा वंचित है. हालांकि, *आदिवासी* अपने असंतोष को लोकतांत्रिक और चुनावी
प्रक्रिया के माध्यम से प्रभावी रूप से आवाज़ दे पाने में अक्षम रहे हैं, जबकि
दलितों को यह मौका मिला है. आदिवासियों के संदर्भ में राज्य और समूचे राजनीतिक
ढांचे की विफलता ने ही माओवादी क्रांतिकारियों को इनके बीच प्रवेश करने का अवसर
और जगह प्रदान किया है. आदिवासियों के बीच नक्सली प्रभाव के कारणों की पड़ताल के
बाद यह आलेख निष्कर्ष देता है कि *आदिवासी* भारत के मौजूदा दौर में दो
त्रासदियों का शिकार बन कर रह गया है. पहली त्रासदी यह है कि राज्य ने अपने ही
*आदिवासी* नागरिकों के प्रति अहसान भरा नज़रिया रखते हुए उपेक्षापूर्ण व्यवहार
किया है, और दूसरी यह कि उनके संरक्षक माने जाने वाले नक्सलियों के पास भी उनके
लिए कोई दीर्घकालिक समाधान मौजूद नहीं है.

समाजशास्त्री वॉल्टर फर्नांडिस का आकलन है कि सरकारी परियोजनाओं के द्वारा
विस्थापित कुल आबादी का 40 फीसदी *आदिवासी* मूल का है.

जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में संकल्प प्रस्ताव रखा था
जिसमें यह घोषणा की गई थी कि जल्द ही औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने वाले इस
राष्ट्र का चरित्र 'स्वतंत्र सम्प्रभु गणराज्य' का होगा. इसका संविधान अपने
नागरिकों को 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; अवसरों और दर्जे की समानता;
तथा कानून के समक्ष व सार्वजनिक नैतिकता और कानून के दायरे में विचार,
अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास, उपासना, व्यवसाय, संगठन और कार्रवाई की
स्वतंत्रता' की गारंटी देगा.

प्रस्ताव में आगे कहा गया था, 'अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, *आदिवासी* इलाकों,
उत्पीड़ितों और अन्य पिछड़े तबकों के लिए पर्याप्त सुरक्षा कवच मुहैया कराया
जाएगा....' प्रस्ताव रखते वक्त नेहरू ने गांधी की भावना और 'भारत के महान अतीत'
के साथ ही फ्रेंच, अमेरिकी और रूसी क्रांति जैसी आधुनिक राजनीतिक परिघटनाओं की
भी हवाला दिया था.

संकल्प प्रस्ताव पर बहस पूरे एक सप्ताह तक चलती रही जिसमें वक्ताओं में प्रमुख
थे- संरक्षणवादी हिंदू पुरुषोत्तमदास टंडन, दक्षिणपंथी हिंदू श्यामा प्रसाद
मुखर्जी, दलित नेता बी आर अम्बेडकर, अधिवक्ता एम. आर. जैकर, समाजवादी एम. आर.
मसानी, अग्र्रणी महिला आंदोलनकारी हंसा मेहता और कम्युनिस्ट सोमनाथ लाहिड़ी. इन
तमाम दिग्गजों के बाद ईसाई धर्म अपना चुके एक पूर्व हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह
बोलने के लिए उठे और उन्होंने शुरुआत कुछ यूं की-

“ एक जंगली और एक *आदिवासी* के तौर पर मुझसे उम्मीद नहीं की जाती है कि मैं इसप्रस्ताव की सूक्ष्म कानूनी जटिलताओं को समझूंगा। लेकिन, मेरी सामान्य समझ यहकहती है कि हम सबको मिलकर स्वतंत्रता के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए और साथ लड़ना चाहिए. मान्यवर, यदि भारतीय जनता का कोई भी ऐसा समूह है जिसके साथ
दरिद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया है, तो वे मेरे लोग हैं. पिछले 6000 वर्षों से
इनकी उपेक्षा की जा रही है और इनके साथ अपमानजनक व्यवहार हो रहा है. सिंधु घाटी
सभ्यता का इतिहास जिसकी मैं पैदाइश हूं, स्पष्ट तौर पर यह दिखाता है कि यहां आए
अतिक्रमणकारियों ने ही मेरे लोगों को सिंधु घाटी से जंगलों में खदेड़ दिया था.
जहां तक मेरा सवाल है, यहां मौजूद आप में से अधिकतर इन्हीं में शामिल हैं.
हमारे लोगों का सम्पूर्ण इतिहास बाहर के आक्रमणकारियों द्वारा निरंतर शोषण और
बेदखली का इतिहास रहा है, जिस पर समय-समय पर विद्रोहों और असंतोष ने लगाम कसने
का काम किया है. इसके बावजूद मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू के शब्दों पर विश्वास
जाहिर करता हूं. मैं आप सभी के शब्दों पर भरोसा जाहित करता हूं कि अब हम एक नया
अध्याय शुरू करने जा रहे हैं-स्वतंत्र भारत का नया अध्याय जहां अवसरों की
समानता होगी और जहां किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी.”

साठ साल बीत गए जब जयपाल ने नेहरू और अन्य लोगों के शब्दों को पकड़ा था. सवाल
उठता है कि इस वक्त उनके लोगों यानी आदिवासियों का भाग्य कहां तक पहुंचा है? यह
आलेख तमाम तरीकों से इस तर्क को स्थापित करेगा कि भारतीय प्रायद्वीप के *
आदिवासी* लोकतांत्रिक विकास के छह दशकों के अचिन्हित शिकार रहे हैं. उन्हें इस
दौरान लगातार व्यापक आर्थिक और राजनीतिक तंत्र द्वारा शोषित और बेदखल किया जाता
रहा है (ठीक इसी दौरान बेदखली की इस प्रक्रिया के समानान्तर भड़के असंतोष और
विद्रोहों ने इस पर लगाम भी कसी). ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि हम अन्य
अवसरविहीन समूहों जैसे दलितों और मुस्लिमों के साथ आदिवासियों की सनातन वंचना
की तुलना करें, तो यह हमें चौंकाता है. एक और जहां लोकतंत्र व प्रशासन पर
राष्ट्रीय विमर्शों को आकार देने और गढ़ने में दलितों और मुस्लिमों का कुछ
प्रभाव मौजूद रहा है, वहीं दूसरी ओर इनकी तुलना में *आदिवासी* न सिर्फ हाशिए पर
बल्कि अदृश्य रहे hai
1.
भारत में करीब 8.5 करोड़ की आबादी ऐसी है जिसे आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जनजाति
का दर्जा प्राप्त है. इनमें से करीब 1 करोड़ 60 लाख पूर्वोत्तर भारत के राज्यों
में रहते हैं. हालांकि, इस आलेख में मोटे तौर पर उन सात करोड़ आदिवासियों के
बारे में बात की गई है जो भारत के हृदय में निवास करते हैं, जो कमोबेश उस पहाड़ी
और जंगली क्षेत्र में आता है जिसका विस्तार गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल तक
विस्तारित है.

पूर्वोत्तर के *आदिवासी* देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों से कई निर्णायक
मायनों में बुनियादी तौर पर भिन्न हैं. पहली बात, कि हाल के ही कुछ दिनों तक वे
हिंदू प्रभाव से कमोबेश अछूते रहे थे. दूसरे, पर्याप्त मात्रा में उनका जुड़ाव
आधुनिक शिक्षा, खासकर अंग्रेजी के साथ रहा जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके बीच
साक्षरता दर अधिक है और इसलिए देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों की तुलना में
आधुनिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने के उनके अवसर भी ज्यादा हैं. तीसरी बात यह
कि वे अब तक बेदखली से उपजे सदमे से बचे रहे हैं जिसका सामना देश के अन्य
हिस्सों के आदिवासियों को करना पड़ा है. भौगोलिक रूप से देखें, तो देश के एक
कोने में उनकी अवस्थिति बांध निर्माताओं और खाद्यान्न मालिकों को उनके पास
फटकने से रोके हुए है.

जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि
आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है.



अनुसूचित जनजाति के दर्जे में आने वाले तमाम जनजातीय समुदायों की संख्या 500 से
भी ज्यादा है. हालांकि, इनके बीच के आंतरिक फर्क को अगर छोड़ दें, तो मोटे तौर
पर मध्य और पूर्वी भारत के *आदिवासी* एक समान सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक तत्वों को साझा करते हैं जिसके चलते हमें उन्हें एक इकाई के रूप में
देखने को बाध्य होना पड़ेगा. इसके अलावा इसी वजह से वे न सिर्फ पूर्वोत्तर के
आदिवासियों, बल्कि भारत के शेष निवासियों से भी भिन्न है. रोजमर्रा की भाषा में
अगर कहें तो हम इनके बीच की समानता को एक शब्द '*आदिवासी*' में पिरो सकते हैं.
लेकिन, इसी शब्द को एक नगा या मिजो के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
हालांकि, जब हम किसी गोंड, कोरकू, भील या उरांव की बात करते हैं तो बड़ी आसानी
से ये शब्द खुद-ब-खुद जुबान पर आ जाता है क्योंकि ये *आदिवासी* समुदाय
किसी-न-किसी समानता को आपस में लिए हुए हैं. आम तौर पर जिन चीजों को वे साझा
करते हें, वे उनके सांस्कृतिक या पारिस्थितिक *जीवन* का हिस्सा होती हैं. मसलन,
ये *आदिवासी* आम तौर पर ऊंचे इलाकों या कहें जंगलों में रहते हैं. हिंदुओं की
तुलना में ये अपनी महिलाओं से बहुत बेहतर व्यवहार करते हैं. संगीत और नृत्य की
इनकी परम्परा बहुत समृध्द है, कभी कभार भले ही वे विष्णु या शिव के किसी अवतार
की पूजा कर लें, लेकिन उनके त्यौहार और कर्मकाण्ड ग्राम देवताओं व आत्माओं के
ही इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं.

आदिवासियों की रोजमर्रा के *जीवन* के बारे में यह समझ पिछले कई वर्षों के दौरान
लिखे उनके जातीय इतिहास पर आधारित है. भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में
देखें तो, हालांकि आदिवासियों को एक सूत्र में पिरोने वाला तत्व उनकी
सांस्कृतिक या पारिस्थितिक भिन्नता नहीं है, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक
अवसरविहीन परिस्थितियां हैं. जैसा कि हाल ही में अपनी पुस्तक में जनसांख्यिकी
विद अरुप महारत्ना ने बताया है, कि जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने
पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है.
मसलन, आदिवासियों में साक्षरता दर 23.8 फीसदी है जो दलितों की साक्षरता दर 30.1
फीसदी के मुकाबले काफी कम है. स्कूलों में नाम लिखाने वाले कुल
*आदिवासी*बच्चों में से 62.5 फीसदी मैट्रिक से पहले ही स्कूल छोड़ देते
हैं जबकि दलितों
में यह स्थिति सिर्फ्र 49.4 फीसदी बच्चों के साथ है. चौंकाने वाली बात यह है कि
भारत के दलितों की 41.5 फीसदी आबादी जहां सरकार द्वारा तय की गई गरीबी रेखा से
नीचे रहती है, वहीं इस कोटे में आने वाले आदिवासियों की संख्या तकरीबन आधी यानी
49.5 फीसदी है.

स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में देखें तो, दलितों की तुलना में आदिवासियों की
हालत यहां भी खराब है. डॉक्टरों और क्लीनिकों तक पहुंच से जहां 28.9 फीसदी *
आदिवासी* वंचित रह जाते हैं, वहीं दलितों में यह स्थिति 15.6 फीसदी के साथ है.
*आदिवासी* बच्चों में सिर्फ 42.2 फीसदी का ही टीकाकरण हो पाता है जबकि दलितों
में यह दर 57.6 फीसदी है. स्वच्छ जल तक 63.6 फीसदी दलितों की पहुंच है जबकि
आदिवासियों में यह स्थिति 43.2 फीसदी है




*आदिवासी*, नक्सली और भारतीय लोकतंत्र



*


“ एक जंगली और एक *आदिवासी* के तौर पर मुझसे उम्मीद नहीं की जाती है कि मैं इस
प्रस्ताव की सूक्ष्म कानूनी जटिलताओं को समझूंगा. लेकिन, मेरी सामान्य समझ यह
कहती है कि हम सबको मिलकर स्वतंत्रता के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए और साथ लड़ना
चाहिए. मान्यवर, यदि भारतीय जनता का कोई भी ऐसा समूह है जिसके साथ
दरिद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया है, तो वे मेरे लोग हैं. पिछले 6000 वर्षों से
इनकी उपेक्षा की जा रही है और इनके साथ अपमानजनक व्यवहार हो रहा है. सिंधु घाटी
सभ्यता का इतिहास जिसकी मैं पैदाइश हूं, स्पष्ट तौर पर यह दिखाता है कि यहां आए
अतिक्रमणकारियों ने ही मेरे लोगों को सिंधु घाटी से जंगलों में खदेड़ दिया था.
जहां तक मेरा सवाल है, यहां मौजूद आप में से अधिकतर इन्हीं में शामिल हैं.
हमारे लोगों का सम्पूर्ण इतिहास बाहर के आक्रमणकारियों द्वारा निरंतर शोषण और
बेदखली का इतिहास रहा है, जिस पर समय-समय पर विद्रोहों और असंतोष ने लगाम कसने
का काम किया है. इसके बावजूद मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू के शब्दों पर विश्वास
जाहिर करता हूं. मैं आप सभी के शब्दों पर भरोसा जाहित करता हूं कि अब हम एक नया
अध्याय शुरू करने जा रहे हैं-स्वतंत्र भारत का नया अध्याय जहां अवसरों की
समानता होगी और जहां किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी.”

साठ साल बीत गए जब जयपाल ने नेहरू और अन्य लोगों के शब्दों को पकड़ा था. सवाल
उठता है कि इस वक्त उनके लोगों यानी आदिवासियों का भाग्य कहां तक पहुंचा है? यह
आलेख तमाम तरीकों से इस तर्क को स्थापित करेगा कि भारतीय प्रायद्वीप के *
आदिवासी* लोकतांत्रिक विकास के छह दशकों के अचिन्हित शिकार रहे हैं. उन्हें इस
दौरान लगातार व्यापक आर्थिक और राजनीतिक तंत्र द्वारा शोषित और बेदखल किया जाता
रहा है (ठीक इसी दौरान बेदखली की इस प्रक्रिया के समानान्तर भड़के असंतोष और
विद्रोहों ने इस पर लगाम भी कसी). ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि हम अन्य
अवसरविहीन समूहों जैसे दलितों और मुस्लिमों के साथ आदिवासियों की सनातन वंचना
की तुलना करें, तो यह हमें चौंकाता है. एक और जहां लोकतंत्र व प्रशासन पर
राष्ट्रीय विमर्शों को आकार देने और गढ़ने में दलितों और मुस्लिमों का कुछ
प्रभाव मौजूद रहा है, वहीं दूसरी ओर इनकी तुलना में *आदिवासी* न सिर्फ हाशिए पर
बल्कि अदृश्य रहे हैं.
आगे पढ़ें

1.
भारत में करीब 8.5 करोड़ की आबादी ऐसी है जिसे आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जनजाति
का दर्जा प्राप्त है. इनमें से करीब 1 करोड़ 60 लाख पूर्वोत्तर भारत के राज्यों
में रहते हैं. हालांकि, इस आलेख में मोटे तौर पर उन सात करोड़ आदिवासियों के
बारे में बात की गई है जो भारत के हृदय में निवास करते हैं, जो कमोबेश उस पहाड़ी
और जंगली क्षेत्र में आता है जिसका विस्तार गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल तक
विस्तारित है.

पूर्वोत्तर के *आदिवासी* देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों से कई निर्णायक
मायनों में बुनियादी तौर पर भिन्न हैं. पहली बात, कि हाल के ही कुछ दिनों तक वे
हिंदू प्रभाव से कमोबेश अछूते रहे थे. दूसरे, पर्याप्त मात्रा में उनका जुड़ाव
आधुनिक शिक्षा, खासकर अंग्रेजी के साथ रहा जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके बीच
साक्षरता दर अधिक है और इसलिए देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों की तुलना में
आधुनिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने के उनके अवसर भी ज्यादा हैं. तीसरी बात यह
कि वे अब तक बेदखली से उपजे सदमे से बचे रहे हैं जिसका सामना देश के अन्य
हिस्सों के आदिवासियों को करना पड़ा है. भौगोलिक रूप से देखें, तो देश के एक
कोने में उनकी अवस्थिति बांध निर्माताओं और खाद्यान्न मालिकों को उनके पास
फटकने से रोके हुए है.

जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि
आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है.



अनुसूचित जनजाति के दर्जे में आने वाले तमाम जनजातीय समुदायों की संख्या 500 से
भी ज्यादा है. हालांकि, इनके बीच के आंतरिक फर्क को अगर छोड़ दें, तो मोटे तौर
पर मध्य और पूर्वी भारत के *आदिवासी* एक समान सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक तत्वों को साझा करते हैं जिसके चलते हमें उन्हें एक इकाई के रूप में
देखने को बाध्य होना पड़ेगा. इसके अलावा इसी वजह से वे न सिर्फ पूर्वोत्तर के
आदिवासियों, बल्कि भारत के शेष निवासियों से भी भिन्न है. रोजमर्रा की भाषा में
अगर कहें तो हम इनके बीच की समानता को एक शब्द '*आदिवासी*' में पिरो सकते हैं.
लेकिन, इसी शब्द को एक नगा या मिजो के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
हालांकि, जब हम किसी गोंड, कोरकू, भील या उरांव की बात करते हैं तो बड़ी आसानी
से ये शब्द खुद-ब-खुद जुबान पर आ जाता है क्योंकि ये *आदिवासी* समुदाय
किसी-न-किसी समानता को आपस में लिए हुए हैं. आम तौर पर जिन चीजों को वे साझा
करते हें, वे उनके सांस्कृतिक या पारिस्थितिक *जीवन* का हिस्सा होती हैं. मसलन,
ये *आदिवासी* आम तौर पर ऊंचे इलाकों या कहें जंगलों में रहते हैं. हिंदुओं की
तुलना में ये अपनी महिलाओं से बहुत बेहतर व्यवहार करते हैं. संगीत और नृत्य की
इनकी परम्परा बहुत समृध्द है, कभी कभार भले ही वे विष्णु या शिव के किसी अवतार
की पूजा कर लें, लेकिन उनके त्यौहार और कर्मकाण्ड ग्राम देवताओं व आत्माओं के
ही इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं.

आदिवासियों की रोजमर्रा के *जीवन* के बारे में यह समझ पिछले कई वर्षों के दौरान
लिखे उनके जातीय इतिहास पर आधारित है. भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में
देखें तो, हालांकि आदिवासियों को एक सूत्र में पिरोने वाला तत्व उनकी
सांस्कृतिक या पारिस्थितिक भिन्नता नहीं है, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक
अवसरविहीन परिस्थितियां हैं. जैसा कि हाल ही में अपनी पुस्तक में जनसांख्यिकी
विद अरुप महारत्ना ने बताया है, कि जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने
पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है.
मसलन, आदिवासियों में साक्षरता दर 23.8 फीसदी है जो दलितों की साक्षरता दर 30.1
फीसदी के मुकाबले काफी कम है. स्कूलों में नाम लिखाने वाले कुल
*आदिवासी*बच्चों में से 62.5 फीसदी मैट्रिक से पहले ही स्कूल छोड़ देते
हैं जबकि दलितों
में यह स्थिति सिर्फ्र 49.4 फीसदी बच्चों के साथ है. चौंकाने वाली बात यह है कि
भारत के दलितों की 41.5 फीसदी आबादी जहां सरकार द्वारा तय की गई गरीबी रेखा से
नीचे रहती है, वहीं इस कोटे में आने वाले आदिवासियों की संख्या तकरीबन आधी यानी
49.5 फीसदी है.

स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में देखें तो, दलितों की तुलना में आदिवासियों की
हालत यहां भी खराब है. डॉक्टरों और क्लीनिकों तक पहुंच से जहां 28.9 फीसदी *
आदिवासी* वंचित रह जाते हैं, वहीं दलितों में यह स्थिति 15.6 फीसदी के साथ है.
*आदिवासी* बच्चों में सिर्फ 42.2 फीसदी का ही टीकाकरण हो पाता है जबकि दलितों
में यह दर 57.6 फीसदी है. स्वच्छ जल तक 63.6 फीसदी दलितों की पहुंच है जबकि
आदिवासियों में यह स्थिति 43.2 फीसदी है.
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एक ओर जहां भारत सरकार ने शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं आदिवासियों को उपलब्ध न
कराकर उनके सामाजिक और आर्थिक विकास सम्बन्धी संवैधानिक गारंटी का असम्मान किया
है, वहीं दूसरी ओर सरकार की नीतियों में ज्यादा सक्रिय तरीके से तमाम
आदिवासियों को उनकी परम्परागत जीवनशैली और आजीविका से बेदखल कर दिया है. गौरतलब
है कि भारत के आदिवासियों की रिहाइश यहां के सबसे बेहतरीन जंगलों, तेज प्रवाह
वाली नदियों और सम्पन्नतम खनिज संसाधनों के बीच पारम्परिक रूप से रही है,
प्रकृति के साथ इसी निकटता ने उनके अस्तित्व के लिए साधन भी मुहैया कराएं हैं.
हालांकि, आजादी के बाद जैसे-जैसे आर्थिक और औद्योगिक विकास की गति बढ़ती गई,
आदिवासियों को व्यावसायिक वानिकी, बांधों और खदानों के लिए रास्ता खाली करना
पड़ा. अक्सर *आदिवासी* उन दबावों और परिणामों के चलते विस्थापित हो जाते हैं
जिन्हें आम तौर पर 'विकास' का नाम दिया जाता है और कभी-कभार इसलिए क्योंकि इसी
विकास का एक अन्य आधुनिक पर्याय भी परिदृश्य में काम करता है जिसे तथाकथित
'संरक्षण' कहा जाता है. इस तरह, बड़ें बांधों और औद्योगिक नगरों के अलावा
आदिवासियों को बेघर करने में राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों का भी हाथ रहा
है.

हमने आदिवासियों को पहाड़ों में इसलिए खदेड़ा क्योंकि हमें उनकी जमीन चाहिए थी और
अब हम उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वे उस जमीन पर अपने तरीके से उसी हाल में
खेती कर रहे हैं जैसे हमने उनके पास छोड़ा था.


आखिर कितने *आदिवासी* इस सचेतन सरकारी नीति के चलते अपना घर-बार और जमीनें खो
चुके हैं.? आकलन बताते हैं कि इनकी संख्या 2 करोड़ तक हो सकती है. संभव है कि हम
इस सवाल का कोई सटीक जवाब न दे पाएं कि भारत सरकार की नीतियों की वजह से कितने
आदिवासियों को उनकी इच्छा के विरुध्द विस्थापित होना पड़ा है, लेकिन इसका एक
मोटा जवाब यही होगा 'कई सारे'. समाजशास्त्री वॉल्टर फर्नांडिस का आकलन है कि
सरकारी परियोजनाओं के द्वारा विस्थापित कुल आबादी का 40 फीसदी *आदिवासी* मूल का
है. चूंकि, भारत की आबादी का तकरीबन 8 फीसदी *आदिवासी* ही हैं, इसका अर्थ यह
हुआ कि एक *आदिवासी* पर एक गैर *आदिवासी* की तुलना में 5 गुना ज्यादा खतरा
विकास या/और संरक्षण का होता है जिसके लिए उससे जबरन उसका आशियाना छोड़ देने को
बाध्य किया जाता है.

आदिवासियों को उनकी जमीनों और गांवों से विस्थापित किए जाने की प्रक्रिया तब
शुरू हुई जब राज्य की भूमिका अर्थव्यवस्था में नियंता की स्थिति तक पहुंच गई.
आज भी उन्हें उदारीकरण और भूमंडलीकरण के तहत विस्थापित किया जाना जारी है.
भारतीय अर्थव्यवस्था के विदेशी पूंजी के लिए खोले जाने का देश के कुछ हिस्सों
में जहां यह असर हुआ है कि शिक्षित मानव संसाधन की पर्याप्त उपलब्धता के चलते
सॉफ्टवेयर जैसे उत्पादों का निर्यात किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर
अप्रसंस्करित कच्चे माल के निरंतर बढ़ते दोहन ने भूमंडलीकरण का बर्बर चेहरा भी
उजागर कर डाला है. ऐसी ही एक स्थिति उड़ीसा के कुछ *आदिवासी* जिलों में बनी है
जहां राज्य के गैर *आदिवासी* सत्ताधारी नेतृत्व में भारतीय और विदेशी खनन
कंपनियों के साथ भारी संख्या में सिलसिलेवार समझौते किए हैं जिनके तहत इन
कंपनियों को न सिर्फ अनुमति दी जाती है, बल्कि प्रोत्साहित भी किया जा रहा है
कि वे आदिवासियों की जमीनें छीन कर उन्हें बेदखल कर दें जिसके नीचे लौह अयस्क
या बॉक्साइट के भारी खजाने मौजूद हैं.

2.
राज्य की सचेतन नीतियों के परिणामस्वरूप आदिवासियों की पीड़ा को पिछले कुछ दशकों
के दौरान कई आधिकारिक रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है. आजादी के एक दशक बाद
गृह मंत्रालय में *आदिवासी* इलाके में सरकारी योजनाओं के संचालन की पड़ताल करने
के लिए मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था.
इसने पाया कि इन योजनाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारी 'अपने लोगों के बारे में
बहुत करीबी ज्ञान से अनभिज्ञ थे और उन्हें *आदिवासी* विकास की सामान्य नीतियों
का भी शायद ही कोई अंदाजा था'. इससे भी बुरा यह था कि 'अधिकारियों के भीतर
श्रेष्ठता का एक भाव था जैसे कि वे उच्च सभ्यता-संस्कृति के स्वर्ग से उतरे
वाहक हों. वे लोगों पर हुकूम चलाते; उनके चपरासी उन्हें गाली देते; काम पूरा हो
जाने के लिए वे किसी को धमकाने-डराने में भी संकोच नहीं करते. किसी भी विफलता
को आदिवासियों के मत्थे मढ़ दिया जाता; ब्लॉक अधिकारी सारा आरोप लोगों की
सुस्ती, निष्क्रियता, आशंका और अंधविश्वासों पर मढ़ देता.'

देश भर में 20 ब्लॉकों के अध्ययन के बाद समिति ने निष्कर्ष निकाला कि
'आदिवासियों की तमाम समस्याओं के बीच उनकी सबसे बड़ी समस्या गरीबी है.' समिति का
कहना था कि उन्होंने इन इलाकों में जो भी गरीबी देखी, वह 'सभ्य' लोगों यानी
हमारी ही गलती थी. हमने आदिवासियों को पहाड़ों में इसलिए खदेड़ा क्योंकि हमें
उनकी जमीन चाहिए थी और अब हम उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वे उस जमीन पर अपने
तरीके से उसी हाल में खेती कर रहे हैं जैसे हमने उनके पास छोड़ा था. हमने अपनी
व्यावसायिक अर्थव्यवस्था के सस्ते उत्पादों को उनके बीच पहुंचाकर उनकी कला छीन
ली है.


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