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03 दिसंबर 2010

सरकार नहीं देना चाहती अधिकार


Villagers-सचिन कुमार जैन

मध्यप्रदेश के सिवनी जिले की आमागढ़ पंचायत के नन्हीं कन्हार गांव का समाज जंगल से महुआ, बेल, बहेड़ा, चिरायता, जड़ीबूटी, हर्रा, चिरौंजी और लकड़ी लाता रहा है। यहां के आदिवासी परिवार स्थानीय और सीतावर्डी के जंगल का उपयोग लघुवनोपज, जानवरों की चराई और तेंदू पत्ते इकट्ठे करने के लिये कई सालों से करते रहे हैं।

उनके देवता बड़ादेव भी जंगल में ही हैं। यहां का कुर्रई विकासखण्ड पांचवी अनुसूची में दर्ज है यानी यहां आदिवासियों को अपनी अस्मिता के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार संविधान देता है।

वनवासियों को शोषण से बचाने के लिए वन अधिकार मान्यता कानून, 2005 भी बनाया गया। यह कानून वनवासियों के पारंपरिक अधिकार को कानूनी मान्यता देता है। लेकिन इसके लिए जो शर्तें तय की गयी हैं, उन्हें शायद ही कोई वनवासी पूरा कर सके।

इस कारण कानून बनने के बाद भी वन भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार हासिल करने के लिये कुछ गिने-चुने आदिवासी ही सामने आए हैं। जंगल पर समाज की निर्भरता और सह-जीवन होने के बावजूद अभी तक वन अधिकार कानून के तहत जंगल पर सामुदायिक अधिकारों की मान्यता हासिल करने के लिये भी अपेक्षित दावे नहीं आए हैं।

मोटे तौर पर 22,600 गांवों में से लगभग 70 हजार सामुदायिक अधिकारों के दावों की उम्मीद की जा रही थी। परन्तु दावों की प्रक्रिया को चलते हुए सवा साल गुजर जाने के बाद अब तक मात्र 4400 सामुदायिक दावे ही आए हैं। अब सवाल यह है कि क्या ग्रामसभाओं ने दावे नहीं किये हैं या उन्हें दावा करने ही नहीं दिया गया। मामले की पड़ताल बहुत कुछ उजागर करती है।

पहले आदिवासियों की जंगल तक पहुंच को सीमित किया जाता रहा है। अब तक एक भी ऐसा कानून भारत के वन निवासियों को नहीं मिल पाया था जो वनों पर उनके सामुदायिक अधिकारों को स्वीकार करता हो।

ऐसे में लम्बे जनसंघर्ष के बाद बने वन अधिकार मान्यता कानून, 2005 के तहत व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता देते हुए आदिवासियों और अन्य वन निवासियों को 4 हेक्टेयर तक वन भूमि पर कब्जे को मान्यता दी जाने की व्यवस्था की गई। साथ ही निस्तार, आजीविका, और परम्पराओं के निर्वहन के लिए जंगल पर समुदाय के अधिकारों को भी स्वीकार किया गया।

अधिकारों की राजनीतिक प्रक्रिया के तहत सरकार को यह कानून तो बनाना पड़ा परन्तु क्रियान्वयन के स्तर पर वह कोशिश कर रही है कि सारा मामला केवल व्यक्तिगत दावों तक ही केन्द्रित रहे क्योंकि इससे वन विभाग को अपने कब्जे की कुल वन भूमि के 1.67 प्रतिशत हिस्से पर ही समझौता करना पड़ेगा।

किन्तु यदि ईमानदारी से सामुदायिक संसाधनों को समुदाय को सौंपना पड़ा तो 74 प्रतिशत जंगल वनविभाग के साम्राज्य से बाहर चले जाएंगे। समुदाय की पहुंच जंगल के ज्यादातर हिस्सों तक हो जायेगी। यह कानून प्राकृतिक संपदाओं पर सरकार की सत्ता को पलटकर समुदाय के हाथ में दे देने का माद्दा रखता है।

यही कारण है कि मध्यप्रदेश के गांवों में वनवासियों के सामुदायिक अधिकारों पर न तो कोई प्रक्रिया चली और न ही उन्हें इसके बारे में बताने के लिए कोई अभियान चलाया गया।

यह कानून इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि पहली बार इससे समुदाय को अपनी आजीविका के लिए न केवल जंगल और जैव विविधता के जिम्मेदार उपयोग का अधिकार मिलता है, बल्कि यह कानून उन्हें वन के संरक्षण का भी अधिकार देता है।

दूसरे मायनों में अब समुदाय अपने बीच के व्यक्तियों को तो वन काटने या वन्य जीवों को नुकसान पहुंचाने से रोक सकता है, साथ ही साथ वन विभाग और ठेकेदारों को भी कानून की आड़ में जंगल काटने से रोक सकता है। लेकिन विडम्बना यह है कि संबंधित ग्रामसभा और पंचायतों को ‘वन संरक्षण के सामुदायिक अधिकारों’ के बारे में कुछ नहीं बताया गया है। व्यक्तिगत दावों की तुलना में सामुदायिक अधिकार ज्यादा व्यापक हैं और वनवासियों में व्याप्त गरीबी के जाल को तोड़ने में सक्षम हैं।

इससे आदिवासियों और अन्य वन निवासियों को जंगल से लघुवनोपज जैसे- चिरौंजी, महुआ, जलाने के लिये लकड़ी, जंगल की नदी से मछलियां व केकड़े आदि इकट्ठा करने और बाजार में उन्हें बेचने का कानूनी हक मिलता है। इससे उनके ऊपर छाया हुआ असुरक्षित आजीविका का संकट हट सकता है और वे एक सम्मानजनक स्थिति में जीवन यापन कर सकते हैं। निश्चित रूप से मकसद भी यही है कानून का।

अब तक राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्यों और संरक्षित वनों में से किसी भी व्यक्ति को एक पत्ता उठाने तक की अनुमति नहीं थी। आदिवासियों के खिलाफ इस प्रतिबंध का बहुत कड़ाई से पालन किया गया। लेकिन एक जनवरी, 2008 से लागू यह कानून अब वन समुदायों को संरक्षित क्षेत्रों- राष्ट्रीय अभ्यारण्यों में भी अधिकार देता है।

सिवनी के आदिवासी संगठन के कार्यकर्ता हंसराम आदिवासी बताते हैं कि हम तो कई पीढ़ियों से पेंच राष्ट्रीय पार्क के भीतर के जंगलों से लघुवनोपज और लकड़ी लेते रहे हैं, पर पार्क बनने के बाद वहां कांटेदार तारों की बाड़ तान दी गई और वन विभाग के हथियारबंद सैनिक हमारे ही खिलाफ खड़े हो गये। तब से लगभग भूखे मरने की नौबत आ गई। वन अधिकार कानून बनने के बाद भी हमें किसी ने नहीं बताया कि अब हमें पेंच के जंगलों के उपयोग का कानूनी अधिकार प्राप्त हो गया है।

हालांकि कानून के प्रावधान बहुत से सामुदायिक अधिकारों को परिभाषित करते हैं, परन्तु उनके क्रियान्वयन की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि अधिकारों का दायरा सीमित होता जा रहा है। वर्तमान कानून में समुदाय को ही यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह अपने अधिकार की सीमाओं को सिद्ध करे।

यदि सरकार की मंशा आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय की पीड़ा को कम करने की है तो वह स्वप्रेरणा से निस्तारपत्रक और ब्लाक हिस्ट्री जैसे उन तमाम दस्तावेजों को आधार बनाकर समुदायों को उनके अधिकार क्यों नहीं सौंप देती। सरकार के पास उपलब्ध इन दस्तावेजों में हर गांव के सामुदायिक अधिकारों का विस्तार से उल्लेख है। ये दस्तावेज बताते हैं कि किस गांव में कौन सा समुदाय जंगल से लकड़ी लाता था, जड़ी-बूटी, कंद, भांजी, मछली लाता था या किस जंगल का उपयोग धार्मिक व्यवहारों के लिये किया जाता रहा है।

इतना ही नहीं जानवरों के विचरण, पानी और आवागमन का भी इन दस्तावेजों में मानचित्रीकरण किया गया है। ग्रामसभा और समुदायों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे अपने दायरे को परिभाषित करें और उसके सबूत जुटायें। खतरा यह है कि यदि वनवासी जटिल कागजी कार्रवाई नहीं कर पाये तो सामुदायिक अधिकारों से उन्हें हमेशा के लिए वंचित कर दिया जायेगा।

21 जुलाई 2004 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सुविख्यात गोदावरमन बनाम भारत सरकार के मुकदमें में एक हलफनामा दाखिल करके स्वीकार किया कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। ब्रिटिश शासन के दौरान आदिवासी समुदाय के पास वनों पर मालिकाना हक के दस्तावेज नहीं थे इसलिए वन क्षेत्रों के सीमांकन के बाद भी आदिवासियों के अधिकारों का निर्धारण नहीं हो पाया।

डेढ़ सौ साल बाद भी स्थिति वहीं की वहीं है, क्योंकि आदिवासियों के पास दस्तावेज तो आज भी नहीं है। दस्तावेज सरकार बनाती है, और सरकार ने कभी उनके अधिकारों का निर्धारण करके दस्तावेज दिये ही नहीं। इसलिए वे अपने अधिकारों से वंचित बने रहे। वन अधिकार मान्यता कानून आ जाने के बाद भी जिस ढंग से वनवासी समुदायों को अपना अधिकार सिद्ध करने को कहा जा रहा है उससे वे वंचित ही बने रहेंगे, इसकी संभावना ज्यादा है।

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