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03 दिसंबर 2010

कहानियों में आदिवासी समाज : डॉ. रानी कुमारी



समकालीन हिन्दी कहानी में आदिवासी समाज को लेकर जो कहानियां लिखी गयी है, उनका विषय और क्षेत्रा, दोनों ही बहुत सीमित हैं। उनमें जहाँ एक तरपफ विकास की प्रक्रिया से टकराते आदिवासी समाज के जीवन-संद्घर्ष का चित्राण है, तो दूसरी तरपफ स्त्राी जीवन की मार्मिकता और उससे उत्पन्न उनके विडंबनापूर्ण जीवन का यथार्थ रूप। जो इस बात की ओर संकेत करता है कि खुला समाज होने के बाद भी आदिवासी स्त्रिायाँ अपने ही समाज में शोषित और उत्पीड़ित हैं। आज भी आदिवासी समुदाय के लोगों पर तरह-तरह के जुल्म ढाये जा रहे हैं।

संजीव की कहानी 'प्रेतमुक्ति' हमें आदिवासी जीवन के इसी सत्य से परिचित कराती है। इस कहानी में संजीव ने दिखाया है कि किस प्रकार गाँव के सामंत, अपने क्षेत्रा के आदिवासियों और उन्हें दिये जाने वाले संसाध्नों का अपने हित में प्रयोग कर लेते हैं तथा विरोध् करने वालों की अमानवीय तरीके से हत्या। उनकी दूसरी कहानी 'पाँव तले दूब' में संजीव ने आदिवासी समाज के इसी संद्घर्ष को उठाया है। यह कहानी आदिवासी जीवन और उनकी संस्कृति का चित्राण करने के साथ-साथ यह भी दिखलाती है कि किन कारणों से आदिवासी समाज ने नयी सभ्यता और संस्कृति के दमन से तंग आकर संद्घर्ष का रास्ता अपनाया है। इस कहानी में आदिवासी समाज का संद्घर्ष दो समानांतर धराओं में होता दिखलायी पड़ता है-पहला आदिवासी समाज के अंदर का विरोधत्मक संद्घर्ष और दूसरा अपने अध्किारों के लिये देश की प्रशासनिक व्यवस्था के खिलापफ संद्घर्ष। आदिवासी समाज के अंदर हो रहे संद्घर्ष के भी मुख्यतः तीन पहलू हैं-पहला, उनकी अपनी 'अरण्यमुखी संस्कृति', जो उन्हें सभ्यता के विकास से जुड़ने नहीं देती और उत्सवर्ध्मिता, जो उन्हें हमेशा कंगाल बनाये रखती है।

दूसरा, वैज्ञानिक प्रगति से अनभिज्ञता के कारण उनके अंदर प्रवाहमान भूतप्रेत, ओझा-गुनी के प्रति विश्वास की भावना, जिसके कारण वैज्ञानिक प्रगति से जुड़कर भी कालीचरण किस्कू जैसा युवा आदिवासी मंत्रा के बल पर लोगों को अपने वश में कर लेने का दावा करता है और तीसरा, आदिवासी समाज की दिवास्वप्न में जीने की प्रवृत्ति। दिवास्वप्न में जीने की इस प्रवृत्ति के कारण ही मांझी हड़ाम जैसा बुजुर्ग आदिवासी-यथार्थ से टकराने में डरता है तथा यह जानते हुये कि सुदीप्त अब इस दुनिया में नहीं रहा, वह उसके पत्राकार मित्रा से सापफ कहता है कि वह किसी से बिना इस प्रसंग की चर्चा किये गाँव से चुपचाप लौट जाये।

संजीव ने इस कहानी में आदिवासी समाज द्वारा किये जा रहे जिस आंदोलन को उठाया है, उसका मुख्य कारण उन्हें अपनी ही भूमि से बेदखल करना रहा है। सरकार ने औद्योगिक विकास के नाम पर उनकी जमीनें तो ले लीं, परंतु बदले में जो दिया, वह इस लायक नहीं था कि वे एक व्यवस्थि जिंदगी गुजार सकें। थोड़ा-सा मुआवजा देकर उन्हें उनके ही हाल पर जीने के लिए छोड़ दिया गया। सुदीप्त के जोरदार विरोध् पर, जब आरक्षित कोटे में एक आदिवासी युवक कालीचरण किस्कू को बहाल किया जाता है, तो उसकी गलतियों के लिये सुदीप्त को ही दूसरे अध्किारी दोषी ठहराते हैं- 'मगर किस्कू लौटकर आ गया, इसके पहले सिन्हा साहब का पुत्रा? ;प्रसाद क्या तुम अपने मानस पुत्रा को सुधर नहीं सकते?द्ध और सिन्हा साहब किस्कू के बहाने सभी आदिवासियों में खोट निकालने लग गये।'
यहाँ तक कि सिन्हा साहब जैसे मुख्यधरा के लोग जब यह कहने लगते हैं कि 'न पढ़ाई-लिखाई, हुनर, अनुभव से मतलब न देश से, बस खुरापफातें करते रहेंगे। कौन कहता है कि ये निरीह हैं? मुझे आदमी चाहिये, काम का आदमी। मैं आदिवासियों का उ(ार करने नहीं आया यहाँ।'

सापफ हो जाता है कि जिस मुख्यधरा में आदिवासियों को शामिल करने की बात की जाती है, वह कितनी बेमानी है? सबसे बड़ी त्राासदी तो सुदीप्त जैसे लोगों के साथ होती है जो आदिवासी समाज के प्रति गहरी हमदर्दी रखकर, अपने ही समाज में हास्यास्पद बन जाते हैं। यहाँ गलती न तो सुदीप्त की है और न ही सिन्हा साहब जैसे लोगों की, बल्कि वे स्थितियां समाज की इस मानसिकता के लिए जिम्मेदार हैं, जिसमें हम अपनी सुख-सुविधओं का एक छोटा-सा हिस्सा भी किसी अ।ैर को देना नहीं चाहते हैं, चाहे वह समाज कितना भी पिछड़ा हुआ क्यों न हो और हमारे पास जरूरत से अध्कि चीजें क्यों न मौजूद हों। जाहिर है आदिवासी समाज के प्रति तथाकथित सभ्य और विकसित समाज की यही भावना उन्हें हमसे दूर ले जाती है तथा उन्हें लगता है कि हम उनके शुभचिंतक नहीं हैं। वस्तुतः विकास की तमाम प्रक्रिया और राजनीतिक नारों के बावजूद आज भी आदिवासी समाज उपेक्षित और पिछड़ा हुआ है। ईसाई मिशनरियों से जुड़े इस समाज के कुछ लोगों को छोड़ दें तो आदिवासी समाज का बहुलांश आज भी देश की मुख्यधरा से अलग-थलग हाशिये की जिंदगी व्यतीत कर रहा है।

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