|
-विमल कुमार सिंह
बात 1996 की है जब संजय पटेल को मुंबई महानगर से कुछ घंटों की दूरी पर स्थित ठाणे जिले के वनवासी गांवों में जाने का मौका मिला। मुंबई की चमक-दमक के ठीक विपरीत उन गांवों में फैली गरीबी को देखना उनके लिए सदमे जैसा था।
वो अपने साथियों के साथ गांव घूम ही रहे थे कि वो एक घर के सामने का दृश्य देखकर ठिठक गए। उन्होंने देखा कि एक महिला शव के पास दुल्हन के वेश में बैठी है और उसके विवाह की रस्में निभायी जा रही हैं।
पूछने पर वहां के वनवासी समाज की एक ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आयी, जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकती है। असल में पारंपरिक समाज होने के कारण वनवासियों में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों का विशेष महत्व होता है। लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी है कि वे इन संस्कारों में आने वाले छोटे-मोटे खर्च को उठा सकने में भी समर्थ नहीं हैं।
इस विवशता के कारण लड़का और लड़की के परिवार वाले बिना विवाह की कोई रस्म निभाए ही उन्हें साथ रहने की इजाजत दे देते हैं। शर्त होती है कि वे शीघ्र ही पैसे जुटाकर विधि-विधान से विवाह की रस्म पूरी कर लेंगे। लेकिन जब खाने के लिए भोजन न हो और पहनने के लिए कपड़े तक न हों तो कोई विवाह की रस्मों के लिए पैसे कहां से जुटाएं।
ऐसा प्राय: होता है कि लड़का-लड़की देखते-देखते माता-पिता और दादा-दादी बन जाते हैं, लेकिन उनकी विधिवत शादी नहीं हो पाती। दुर्भाग्य से इसी बीच दोनों में से किसी एक की यदि मृत्यु हो गयी, तो वह सब होता है जो किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक है। पति या पत्नी को अपने मृत साथी के साथ विवाह की रस्में पूरी करनी होती हैं। यदि ऐसा नहीं किया गया तो वनवासी समाज के नियमों के अनुसार मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकता।
पुराने समय में शवों को प्राय: बिना अंतिम संस्कार किए जंगलों में छोड़ दिया जाता था, जहां वे जंगली जानवरों का आहार बन जाते थे। लेकिन आज यह भी संभव नहीं। जंगल कट चुके हैं। ऐसे में भारी ब्याज पर कर्ज लेकर मृत साथी के साथ विवाह करना कई वनवासियों की मजबूरी बन चुकी है।
वनवासियों की इस समस्या का ईसाई मिशनरियों ने भरपूर फायदा उठाया। उन्होंने यह प्रचार करना शुरू किया कि ईसाई धर्म उन्हें ऐसे सभी कर्मकांडों से मुक्ति दिलाएगा। साथ ही उनकी ओर से वनवासियों को आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करायी गयी। इन सबका मिला-जुला प्रभाव यह हुआ कि इलाके के कई-कई गांव ईसाई बन गए। धर्मांतरण की इस समस्या पर जब विश्व हिंदू परिषद के लोगों का ध्यान गया तो उन्होंने अपना पहला सेवा प्रकल्प ठाणे जिले के तलाशरी तहसील में माधव राव काणे के नेतृत्व में प्रारंभ किया। धीरे-धीरे हिंदू समाज के कई लोग इस सेवा प्रकल्प से जुड़ते गए और इस प्रकार ठाणे जिले के वनवासी क्षेत्रों में चल रहे सेवाकार्यों में गति आने लगी।
मृत्यु के बाद विवाह की समस्या से विश्व हिंदू परिषद के लोग परिचित थे। वे प्रतिवर्ष कुछ जोड़ों की शादी भी करवाते थे। लेकिन संजय पटेल इससे संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने व्यापक स्तर पर विवाह कार्यक्रम आयोजित करने का मन बनाया। वर्ष 1996 में ही उन्होंने तलाशरी में 25 वनवासी जोड़ों की शादी करवायी। कुछ सप्ताह बाद उन्होंने डहाणू तहसील में 50 जोड़ों की शादी करवायी। उसी साल उन्होंने जवाहर तहसील में 71 और जोड़ों का स्थानीय रीति-रिवाज के साथ विवाह संपन्न करवाया।
प्रत्येक दंपति को यथासंभव गृहस्थी के सामान, कपड़े और अन्य उपहार भी दिए गए। साल दर साल जोड़ों की संख्या बढ़ती गयी। ठाणे के आस-पास के अन्य इलाकों में भी काम का विस्तार हुआ। वर्ष 2000 में संघ शासित क्षेत्र सिलवासा में एक बड़ा कार्यक्रम किया गया जिसमें 202 जोड़ों की शादी करवायी गयी। लगभग 15,000 लोगों ने भोजन किया।
विवाह करवाने के इस पूरे अभियान की खासियत यह रही कि इसमें मुंबई के समृद्ध व्यवसायियों को जोड़ा गया। मुंबई के बड़े-बड़े व्यापारियों ने वनवासी इलाकों में आकर कन्यादान किया। विवाह के बाद भी उनका वनवासी दंपति से संबंध बना हुआ है। मालाबार हिल्स जैसे इलाकों में रहने वाले परिवार दिवाली के मौके पर वनवासी परिवार के बच्चों को अपने यहां बुलाते हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं रहा।
संजय पटेल बताते हैं कि शुरू में जब कुछ दानदाता देखते कि एक ही मंडप में तीन-तीन पीढ़ियों की शादी हो रही है, दुल्हन बच्चे को दूध पिला रही है, तो वे नाराज होते और सोचते कि यह सब ड्रामेबाजी है, लेकिन असलियत बताने पर वो भावुक हो जाते और फिर पूरे मनोयोग से सहयोग करने के लिए तैयार हो जाते। दानदाताओं के सहयोग से इस समय ठाणे जिले की पांचों तहसीलों में 500 से अधिक जोड़ों का विवाह प्रतिवर्ष आयोजित किया जा रहा है।
विवाह कार्यक्रमों के दौरान संजय पटेल ने महसूस किया कि वनवासियों की असली समस्या गरीबी और भुखमरी है। शिक्षा का घोर अभाव है। सरकार की ओर से स्कूल खुले हैं, अध्यापक भी नियुक्त हैं। लेकिन, बच्चे नहीं हैं, क्योंकि वे अपने मां-बाप के साथ काम की तलाश में घूमते रहते हैं। दिवाली के बाद जब फसलें कट जाती हैं, उस समय वनवासियों के गांव लगभग खाली हो जाते हैं। बूढ़े और लाचार लोगों को छोड़ सारा गांव काम की तलाश में निकल जाता है।
ईंट बनाने, समुद्रतट से रेत निकालने और खेतों में काम करने जैसे काम ये लोग पारंपरिक रूप से करते आए हैं। जागरुकता के अभाव में इनका हर जगह शोषण ही होता है। बरसात में जब चारों ओर काम बंद हो जाता है तो भुखमरी की नौबत आ जाती है। पेट भरने के लिए साहूकारों और ठेकेदारों से कर्ज लेना पड़ता है जो कभी खत्म नहीं होता। इन सब मुसीबतों के बीच शराबखोरी की समस्या कोढ़ में खाज के समान है। सारा वनवासी समाज इससे पीड़ित है।
इन परिस्थितियों के बीच संजय पटेल ने भुखमरी की समस्या से पहले लोहा लिया। सितंबर-अक्टूबर के महीने में जब भुखमरी की समस्या सबसे भयंकर होती है, उन्होंने उन इलाकों में राशन के हजारों पैकट बंटवाए। प्रत्येक पैकट में 10 किलो चावल और 2 किलो दाल के साथ-साथ चीनी, हल्दी, मिर्च और नमक के पैकट भी बांटे गए। बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था की गयी। उन्हें पास के स्कूलों में भेजा गया और उनके माता-पिता को आश्वासन दिया गया कि वे उनके भोजन की चिंता न करें।
यह सब करते हुए संजय जी ने वनवासियों को उद्यमिता का पाठ पढ़ाने का भी निश्चय किया। स्वयं वे व्यावसायिक परिवार से हैं। मेकैनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने यार्न के अपने खानदानी व्यवसाय को छोड़ ट्रेडिंग और एक्सपोर्ट के क्षेत्र में भाग्य आजमाने का फैसला किया था। शीघ्र ही हिंदुस्तान एयरोनाटिक्स और ग्लैक्सों जैसी 90 बड़ी कंपनियां उनकी ग्राहक बन चुकी थीं। आज संजय पटेल का प्रतिष्ठान लगभग 150 बड़ी कंपनियों को उन सभी सामानों की आपूर्ति करता है जो उनके उत्पादन के लिए आवश्यक हैं। इस समय भवन निर्माण से जुड़ी उनकी कई परियोजनाएं मुम्बई में चल रही हैं। निर्यात क्षेत्र में भी उनकी अच्छी ख्याति है।
यद्यपि संजय पटेल ने अब व्यावसायिक गतिविधियों में अपनी सक्रियता बहुत कम कर दी है, फिर भी उनकी व्यावसायिक सूझ-बूझ तो आज भी यथावत है। उन्होंने सोचा कि ये वनवासी कई पीढ़ियों से ईंट भट्टों में काम करते आए हैं, तो क्यों न इनकी एक सहकारी समिति बनायी जाए जो ईंट बनाने का काम करे। इसी सोच के साथ उन्होंने तीन गांव सापने, करंजा और नवी दापचरी के वनवासियों से बात की और जय श्री राम औद्योगिक ईंट उत्पादक सहकारी संस्था मर्यादित का गठन किया। बैंक में खाता खुलवाया गया। पर किसी सदस्य को हस्ताक्षर तक करने नहीं आता था।
किसी तरह संस्था की चेयरपरसन वंदना डगला नामक महिला को हस्ताक्षर करना सिखाया गया। संस्था को राजनीति से दूर रखने के लिए विशेष प्रावधान किया गया। ऐसे नियम बनाए गए कि यदि कोई सदस्य राजनीतिक गतिविधि में भाग लेता है, तो उसे संस्था से निकाल दिया जाएगा। यदि संस्था के सभी सदस्य ऐसी गतिविधि में शामिल हो जाएं तो पूरी संस्था को ही भंग कर देने का प्रावधान है।
वनवासियों को यह कतई विश्वास नहीं था कि वे खुद मालिक बनने जा रहे हैं। वो तो इसी बात से खुश थे कि उन्हें अब काम की तलाश में गांव के बाहर नहीं जाना पड़ेगा। संजय पटेल के व्यावसायिक निर्देशन में संस्था ने तेजी से प्रगति की और तीन साल के भीतर ही यह एक लाभकारी संस्था बन गयी। जो वनवासी पहले काम की तलाश में इधर-उधर भटकते थे, अब अपने ही गांव में काम करके साल में 5 से लेकर 7 लाख रुपए तक कमा लेते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या वे अपने इस प्रयोग को अन्य गांवों में भी दोहराएंगे, संजय पटेल ने कहा, ”वे अपना पूरा ध्यान प्रशिक्षण देने पर केंद्रित कर रहे हैं।” उनकी योजना के अनुसार अब आसपास के कई गांव वाले ईंट बनाने के काम में प्रशिक्षण ले रहे हैं।
संजय पटेल ने अब तक जो भी किया, उसमें समाज का भरपूर सहयोग लिया। वे किसी राजनीतिक दल के लिए काम नहीं करते, लेकिन सभी राजनीतिक दल उनका सहयोग करने के लिए तत्पर रहते हैं।
यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि जिन तीन गांवों के वनवासियों को इस संस्था से जोड़ा गया है, उनमें से एक गांव नवी दापचरी ईसाइयों का है। जो गांव ईसाई हो जाते हैं, उनसे बाकी वनवासी गांव रोटी-बेटी का संबंध नहीं रखते। संजय पटेल के विशेष आग्रह पर दो गांवों के लोगों ने ईसाई गांव के साथ पहली बार मेल-मुलाकात की। उन्होंने गांव वालों को समझाया कि ईसाई हो चुके वनवासी भी उनके अपने हैं। उनसे भाईचारा बनाए रखने की जरूरत है। इससे उनके मन में अपने मूल धर्म के प्रति फिर से आस्था जागृत होगी।
जब सहकारी समिति का प्रयोग सफल हो गया तो संजय जी को एक नयी चिंता सताने लगी। वे वनवासी समाज की कमजोर नस को जानते थे। वे जानते थे कि जो वनवासी कर्जा लेकर भी शराब पीने से नहीं हिचकता, उसके पास यदि साल में ईंट उत्पादन से लाखों रुपया आने लगा, तो उसका दुरुपयोग अवश्यंभावी है। शराबखोरी और लड़ाई-झगड़ा की आदत उनकी समृद्धि को जल्दी ही निगल जाएगी। इसलिए नवसृजित समृद्धि को संभालने के लिए उन्होंने वनवासियों के बीच संस्कृति के बीज बोने का फैसला किया।
ठाणे और उसके आस-पास के वनवासी इलाकों में वैष्णव मत का प्रभाव है। उनमें से कुछ लोग पंढरपुर में विठोबा के दर्शन को बहुत पुण्य का काम मानते हैं। जिनकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति अधिक होती है वे पंढरपुर में जाकर कंठी धारण कर लेते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए संजय जी ने सहकारी समिति के प्रभावक्षेत्र में आने वाले तीन गांवों की सभा बुलायी और प्रस्ताव किया गांव के सभी लोग पंढरपुर की यात्रा करेंगे और कंठी धारण करेंगे। सभा में दो सौ लोगों ने यात्रा की बात स्वीकार कर ली। तीन बसों का इंतजाम हो गया और पंढरपुर में एक संत से भी बात हो गयी जो सभी यात्रियों को कंठी देने वाले थे।
लेकिन अगले दिन संजय जी को अलग ही समाचार सुनने को मिला। एक कार्यकर्ता ने उन्हें फोन पर बताया कि अधिकतर लोग कंठी लेने की बात पर पलट गए हैं। अब केवल 12 लोग ही यात्रा करने और कंठी लेने को तैयार हैं। पूछने पर पता चला कि कंठी लेने के बाद बहुत संयमित जीवन जीना पड़ता है। कंठी लेने वाले के लिए मांस-मदिरा का त्याग करने और झूठ नहीं बोलने के साथ-साथ नियमित हरिभजन, तुलसी को जल, देवदर्शन और वर्ष में एक या दो बार तीर्थयात्रा जरूरी होती है। उन्मुक्त जीवन जीने वाले वनवासियों को यह सब बहुत मुश्किल लग रहा था।
मौके की नजाकत को देखते हुए संजय जी ने लोगों को समझाया कि सभी के लिए कंठी लेना जरूरी नहीं है। जिसकी इच्छा हो वही कंठी ले। किसी के ऊपर दबाव नहीं डाला जाएगा। यह स्पष्ट हो जाने पर 132 वनवासी और कुछ शहरी लोग यात्रा के लिए निकल पड़े। देहू, आणंदी और पंढरपुर की तीन दिन यात्रा के दौरान जो भक्तिमय माहौल बना, उसके प्रभाव में 21 लोगों ने कंठी ली। उन्हें वारकरी (वैष्णव) संप्रदाय की हरिभक्त परायण मंगलाताई काम्बले द्वारा दीक्षा दी गयी। आते समय सभी ने लोनावाला में एकवीरा माता के भी दर्शन किए।
अपने गांव लौटकर वनवासियों ने श्रमदान करके एक मंदिर बनाया। अब वहां प्रतिदिन भजन कीर्तन होता है। जिन गांवों में शाम को मांस-मदिरा का सेवन और मार-पीट आम बात थी, वहां अब हरिभजन के स्वर सुनाई देने लगे हैं। जहां पहले सभी कंठी लेने से कतराते थे, वहीं माहौल इतना बदल गया कि अगले दो महीनों में 61 और युवाओं ने सौगंध ली कि वे भी कंठी धारण करेंगे। भक्ति की यह लहर आस-पास के गांवों को भी प्रभावित कर रही है। वहां भी भजन मंडलिया शुरू हो गयी हैं।
संजय पटेल ने पिछले कई सालों की मेहनत से जो आदर्श स्थापित किया है, उसके स्थायित्व के बारे में अब वे आश्वस्त दिखते हैं। अब वे अपना अधिकतर समय भारत विकास संगम में लगा रहे हैं। सज्जनशक्ति के बीच संवाद-सहमति और सहकार उनका एकमेव लक्ष्य बन चुका है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें