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03 दिसंबर 2010

हरिराम मीना कि आदिवासी कवितायेँ

जारवा आदिवासी को स्वप्न में देखकर

तुम्हें लाल रंग क्यों पसन्द है जारवा-पुत्र,
(क्षमा करना, इस सम्बोधन में ’आर्य-पुत्र’ की
अभिजात्य अनुगूँज नहीं समझता।)
क्या यह अनुराग की व्यंजना है
या लक्षणा लाल खून की
जिससे साबित होती है जिन्दगी
-या अभी-अभी हुई मौत।
ऐसा तो नहीं जारवा-पुत्र
कि मस्तिष्क की कन्दराओं से
सुनाई देती हों-
अबेदीन की दनदनाती बन्दूकों की
-धधकती आग्नेय प्र्रतिध्वनियंा

और याद आता हो
काले पानी से घिरी काली धरती का
ऊबड़-खाबड़ रूधिरस्नात रणक्षेत्र।
बनाओ जारवा-पुत्र
क्या तुम्हारा कोई वास्ता है
आदिम बनाम आक्रान्ताओं के
चतुर्युगीय संघर्षों की दास्तान से
उनके एकपक्षीय गौरवगान से
जिसे सुनकर अभी भी
चैंक पड़ते हैं-
बाली और शम्बूक के रक्त-रंजित अमुक्त प्रेत
और प्रश्न बन खड़ा होता है
द्रोणाचार्य के काँपते हाथों में
खून से लथपथ एकलव्य का
-तड़पड़ाता अँगूठा ?

बोलो जारवा-पुत्र
क्या तुम परिचित हो-
दीप्तिमती रक्तवर्णा स्वर्गतनया उषाओं से
जो देती बताई संकेत

किसी नव-प्रभात के अरूणोदय का
या फिर-
लाल रंग की यह पसन्दगी
उस साँझ की सूचक तो नहीं
जो लीलती जा रही है
तुम्हारे अस्तित्व को
-चुपचाप ?

सोमवार, ९ नवम्बर २००९

मारवाड़

मारवाड़
मरू अंचल का कोना-कोना
सब ही उजाड़
अंधड़ दहाड़
मीलों-मीलों धरती उघाड़
यह धरती सहती
सूरज की तपती किरणों की मारधाड़
ढूहों के ढूह रेत के बस
कोई न पाड़
बहती रेता के लघु पहाड़

आक्षिजित फैलता सिंधु रेत का
भीमकाय अजगर से धोरे लोट-पोट
ज्यों भूरे सागर की लहरें
प्रति पल नूतन आकार धरें
पष्चिमी हवाओं के प्रहार
जीवन पर करते अट्टहास
श्रंृगारी ऋतुओं का मजाक

कोयल, मयूर
सावन, बसंत
बादल, शीतल समीर
नद, सर, निर्झर,
दूर्वादल कहीं न दूर-दूर
रेता के कण ही भूर-भूर
बिखरी-बिखरी
उजड़ी-सी दूरस्थ बस्तियाँ
लम्बे-लम्बे डग भरती
ऊँटों की ही तो मात्र कष्तियाँ
लहराती फसलें प्रष्न-चिह्न
धरती ही प्यासी
पीने को पानी भी बासी

गरमी में आग बरसती है
भू क्षण-क्षण कण-कण जलती है
दिन-रात धधकती धरती की
पीड़ा हरने
रातों की आँखों में देखो!
ओसों के आँसू झरते हैं
मरू-भू को तनिक तृप्त करने
अस्तित्व निछावर करते हैं
सर्दी भी देखो, दुखदायी
शूलों-सी चुभती हाड़-फोड़
कर रही ग्रीष्म से यहाँ होड़
सर्दी-गर्मी के ये तेवर
हैं मात्र शरण झूपों के घर
खाने में कहाँ विविध व्यंजन
बस मोठ, बाजरी बनी खाण
हैं कड़ी, साँगरी, केर अभावों में लगाण

कहते हैं-
लाखों वर्ष पूर्व
कोई युग में था सिंधु यहाँ
पर अब न नीर का बिन्दु यहाँ
वह सरस भूमि मरू-धरा बनी
किन अभिषापों की करनी ?

जीना दूभर-
फिर भी जीवन में जीवट है
श्रम-सम्बल जिजीविषा बनता
इस कारण भू वीरान नहीं
चाहे अनगिनत अभाव सही
फिर भी जीते हैं लोग यहाँ
लम्बे-लम्बे कद-काठी के
वन-जीव, वनस्पति दिखते हैं
ज्यों तपःपूत इस माटी के।

झुरमुट बन जीते सरकंडे
माथे पर छर्रों के झण्डे
भम्फोड़1 उग रहे धरा फाड़
जैसे लगते लघु वृक्ष ताड़
पीले-पीले
भूरे-भूरे

है उत्तरीय-सी हरियाली
कुछ बीच-बीच में लाली है
देखो तो-
छटा निराली है।
----------------------
1. छः इंच से दो फुट लम्बा मूसलनुमा एक रेगिस्तानी पौधा। सफेद-पीला-सा। अन्य रंग भी एक ही पौधे में होते हैं। ‘भूमि फोड़‘ से भम्फोड़ नाम पडा़ होगा। इसे मरगोजा भी कहते हैं।
काँकेड़ा, रोहिड़ा, सीणिया
कुंज करीलों के दिखते हैं
खींप, आँकड़ा, बुई, बोरड़ी
कीकर, कुमट्या, केरों के ही-
वृक्ष इस धरा पर मिलते हैं
कुछ विरले वृक्ष सरेस
कल्प-तरू बने खेजड़े
यहाँ काचरी और मतीरे-
के ही तो बस बिछे बेलड़े।

बकरी, भेड़ों के चलते रेवड़
लुढ़क-लुढ़क
ऊँटों ही ऊँटों की कतार
हैं वन-बिलाव, लोमड़, काले मृग, नील गाय
दिन-रात भटकते हैं सियार।

टहणों में भेड़ें
फोगों की गुच्छी
दोनों ही
गोल-मटोल
धवल-सी दिखती हैं
ऊँटों की भी लम्बी कतार
मटियाली, भूरी रेता के
भूरे धोरों में मिलती है।

यहाँ मरूधरा में
देखो !
भोले-भाले निग्र्रन्थ लोग
सहज, सरल, सीधे, सपाट
नव-संस्कृति का जिनमें न रोग
बकरी, भेड़ों, ऊँटों के रेवड़ लेकर देषाटन जाते
आषाढ़ मास वापस आते
इस सृजन मास में देख गगन
कुछ बचा बाजरी, मोठ बीज
धरती पर देते वे बिखेर
मन से कुछ आषाएँ उकेर
वर्षा ऋतु भटके मेघों से
कुछ बूँदें ही टपका जाती
उन ही के सम्बल से देखो !
ले प्राणषक्ति अंकुर फूटे
कुछ मोठ, बाजरी उग आती
दानी-सी प्रकृति द्रवित होती
वह भी तो देती बिना देर
कुछ फोग, साँगरी, बेर, केर

इससे भी आगे
कुछ तो है
तब ही
मरूस्थल में जीवन है
शायद मूमल की प्रीत यहाँ
ढोला-मारू के गीत यहाँ
अलगोजा दूर तरंगों में
बजता है चंग उमंगों में
दिन में स्वर्णिम धोरे हिलते
ले चन्द्र-किरण कण-कण खिलते
हैं लोक-देवता-
तेजा, गोगा, रामदेवरा
इनके मेले
लोगों के बहुरंगी रेले
इनसे भी कुछ ऊर्जा लेते
जीवन की नैया को खेते

इससे भी आगे जीवन में-
नृत्यों की रूनक-झुनक थिरकन
तन पर रेता की ही उबटन
परदेषी कुरजां की कलरव
रेता की भी भूरी मखमल
सर्दी में सूरज का सम्बल
कुछ गरमाता मरू के तन को
गर्मी में रातें कुछ ठण्डक दे
सहलाती जाती जीवन को

चाहे मनुष्य
या जीव-जगत
या
फैली प्रकृति मरूस्थल की
सब ही तो हैं संघर्षलीन
करते जीवन को
समय-हीन
अक्षुण्ण, अनवरत, अन्तहीन।
प्रस्तुतकर्ता हरि राम मीणा पर ९:०१ अपराह्न 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक

पूर्णिमा की रात और वह आदमी

दिन भर
सातों घोड़ों को
-थकाता रहा गुस्साया सूरज
और,
जाते-जाते
छोड़ गया गर्द भरी तपती साँझ

पूरब की कोख से
जन्मना ही था भरे-पूरे चाँद को
वह भी उगा मटमैला
निकला हो जैसे गरम-गरम राख में से

उफ,
कितना सहा दिन को
फिर यह-
बेचैनी उगलती पूर्णिमा की रात!
बिजली गुल
छतों पर राहत तलाषते असुविधा की दुविधा में फँसे लोग

इस सबसे बेखबर
ठर्रे के असर में
तंगे खाता वह अधेड़
धूप की तरह पारदर्षी जिसकी पहचान
घर-परिवार सम्भालने के लिए
घर-परिवार छोड़कर
गाँव से आया कोई मजदूर या किसान

लगा,
जैसे पहली बार उसने दारू पी
खाली पेट में भभकता गुस्सा
बड़बडा़हटनुमा उसी की लपटें
बेकाबू लपटों को राह दिखाती-
फौस गालियाँ.....
श्.....देख लूँगा हरामियों को.....श्
-कहते हुए
उसके पाँव लड़खड़ाए
वह गिरा-गिरा बचा

बेखबर था छतों पर जमा लोगों से
बहुत कम वाकिफ होगा यहाँ की सड़कों से भी
(वैसे,
उसने खूब देखा था
अपने गाँव का आसमान और उसकी जमीन)

उधर,
छतों पर
केवल बिजली की वजह से
परेषान लोग
देख रहे थे उसे बड़े ही कौतुक से
-मजाकिया लहजों मंे टीका-टिप्पणी करते
और
जब वह लड़खड़ाकर गिरा होता
तब तो खूब ही हँसे थे लोग
शायद,
उस तक भी
पहुँची हों अट्टहास की कुछ तरंगें

पर,
वह बेपरवाह इंसान
बढ़ता ही गया
उस सड़क से
आगे की सड़कों की ओर
सड़कों पर उतरने का
संकल्प लेता हुआ.....
प्रस्तुतकर्ता हरि राम मीणा पर ९:०० अपराह्न 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक

चाँद

न जाने क्या-क्या देख लिया
तुमने चाँद में
था ही नहीं जो वहाँ

मेरे पुरखों ने देखी-
वो चरखे वाली बुढ़िया
और कतते सूत की डोरी

सच बोला करता था दादा
जैसे
वह प्यारा ‘बाबा‘ कवि
जिसने चाँद में रोटी देखी

बेषक,
चाँद में न बुढ़िया
न सम्वत
न रोटी
फिर भी-
उन्होंने जो देखा
वह मेल खाता है इस धरती से
जो जन्माती व जिन्दा रखती है
-धरती के लोगों को
प्रस्तुतकर्ता हरि राम मीणा पर ८:५६ अपराह्न 2 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक

बृहस्पतिवार, ५ नवम्बर २००९

भीलणी

इस बहुरंगी दुनिया में
मेवाड़ी धरती
उस धरती मे विरल भीलणी
निर्मल, शुभ्र हृदय उसका
पर
तम-आच्छादित उसकी काया
किन अतीत के अभिषापों की
काली छाया
पड़ी निरन्तर
उसके तन पर
ले दोपहरी से अंगारे
धूणी रमती
वन वन फिरती
वह तपस्विनी
श्रम की देवी।

फटा घाघरा
तन से लिपटा
तार-तार चोली
लज्जा की रक्षा करती
अन्तिम साँसें रोक ओढ़नी
सर को ढकती।

अरावली पर्वतमाला की काली घाटी
काली घाटी के तल में
कँकरीली माटी
फटे खोंसड़े ही
उसके पैरों की जूती
बीच-बीच में पगतलियँा
धरती को छूती।
राह रोकते शूल झाड़ के
नागफनी के पुंज
रोकते उसके पथ को
जीवन-रथ को।
दयावान कुछ पेड़
द्रवित हो
उस वनदेवी को ज्यों देते
सूखी लकड़ी
बीन-बीन कर उनको चुनती
तोड़-तोड़ कर गठरी बुनती
उस गठरी को माथे धरती
खट-खट फट-फट
चलती ढोती।

उसके तन के
रोम-रोम के
छिद्र-छिद्र से
फूट-फूट कर
निसृत होता स्वेद-निर्झरा
टप-टप टपका
उस तपस्विनी का मन
कुछ क्षण चलते-चलते
घर जा अटका।

घर क्या होगा उस दरिद्र का-
एक डँूगरी की छाती का
लेकर सम्बल
टूटी-फूटी
रूग्ण झोंपड़ी
पर्ण-कुटी सी
कोलू मिश्रित
बीच-बीच में गगन झाँकती
मानवता का मूल्य आँकती।

उस अभाव के ही आश्रय में
नन्हंे-नन्हें उसके बालक
भील गया दूरस्थ देष
मजदूरी करने
घर की कुछ उम्मीदों को
ज्यों पूरी करने।
’’मैं रोटी लेने जाती हूँ
अभी-अभी वापस आती हँू।’’

यह कह कर
चुपचाप
क्षुधा की तृप्ति हेतु
वह अस्थि-पुंज
सूखी लतिका-सी
रोटी की ठण्डक तलाषने
निकली
वन, पर्वत, उपत्यका
उलट चली सूखी सरिता-सी।

भोर सुनहरी
उसको जैसे
पीली-पीली
मक्का की सी
रोटी दिखती
चढ़ते सूरज संग भागती
वन-प्रान्तर में
छिपती फिरती।

कहीं छिप गई
इस रोटी की ही तलाष में
जंगल की सूखी लकड़ी में
दिन-भर फिरती
वह अभागिनी
श्रम की जननी
वह तपस्विनी।

साँझ ढले
बाजार फिरे
ले लकड़ी गठरी
गंध खोजती रोटी की सी
मिली अन्त में उसे कमाई
पर थोड़ी-सी।

वह थोड़ा-सा
श्रम का प्रतिफल
घर का सम्बल
कैसे करता तृप्त
निर्धना का मरू-जीवन।

दिन-भर का श्रम भूल
दिन छिपे
वह श्रम देवी
पूरी राहें
धेनु समान ममत्व छिपाती
मन ही मन में
वह रम्भाती
फिर घर आती।

भूख सताए नन्हें बालक
हो हताष
सो जाते तब तक
ठाऽठ पड़े
श्यामल-ष्यामल
निर्बल
पर, जीवटमय
दोनों हाथों से उन्हें जगाती
वक्ष लगाती
रोती-रोती
देती रोटी
वात्सल्य का भार लिए उर
रूद्ध कण्ठ भींचे अभाव सुर
उन्हें खिलाती
उन्हें सुलाती।

अब थे बालक अंक नींद की
बीच-बीच में स्वप्न
चाँद से परी उतरती
हाथ सजा कर थाल
स्वप्न में व्यंजन देती
पर-
स्वप्नों के इस यथार्थ को
खूब जानती भील तापसी
वह थी भूखी
रोटी उस को कहँा बची थी
श्रम की बेटी
थक कर लेटी।

उधर झोंपड़ी के आँगन में
बिखर रही मधुसिक्त चाँदनी
फूले महूआ के पातों से
छान-छान दे रही यामिनी।

क्षुधा-व्यथित वह भील-सुता
निज यौवन में भी प्रौढ़ा-सी
निज प्रौढ़ आयु में वृद्धा-सी।

बाहर बिखरी चन्द्रिका
गगन मंे चन्द्र देख
(नागार्जुन बाबा तो शायद
रोटी का रूपक भूल गया
कुछ और चाँद में ढूँढ रहा)
पर-
देख भीलणी ने चंदा
आकार गोल
धवला-धवला
रोटी की ठण्डक-सा ठण्डा।

कल्पनामग्न
ज्यों चाँद ज्वार की रोटी हो
परतें कुछ मोटी-मोटी हो
उतरा
धीरे-धीरे हिय तल
कुछ शांत हुई ज्यों जठर-अनल
यह कैसी
क्षुधा-षान्ति उसकी
कैसी थी प्रबल भ्रान्ति उसकी।

था खाली पेट
अँधेर घुप्प के अन्धकूप में
स्वप्न जल रहे थे उसके
अतिक्रुद्ध धूप में।

अब-
अन्तरंग पीड़ा तरंग
वन में बिखरी
पर नहीं वेदना तनिक
सकल वन था निःस्वन
बस एकमात्र
पलाष ही को तो थी अखरी।

क्रुद्ध था पलाष
आग उगलता
शाख-षाख
फूट-फूट
रक्तवर्णी एक-एक
फूल उसका धधकता।
देख-
महुआ भी तड़पता
रूदित होता रात भर
झर-झर टपकता।

हार थक
चुपचाप
फिर वह जिन्दगी का भार ढोती
ना दिखे औरों को चाहे
पर तपः तनया के भीतर
प्रखर अग्नि धधकती
खदकते इस्पात की सी
-धार पकती।

बृहस्पतिवार, २९ अक्तूबर २००९

आदिवासी लड़की

आदिवासी युवती पर
वो तुम्हारी चर्चित कविता
क्या खूबसूरत पंक्तियाँ-
‘गोल-गोल गाल
उन्नत उरोज
गहरी नाभि
पुष्ट जंघाएँ
मदमाता यौवन......‘
यह भी तो कि-
‘नायिका कविता की
स्वयं में सम्पूर्ण कविता
ज्यों
हुआ साकार तन में
प्रकृति का सौन्दर्य सारा
रूप से मधु झर रहा
एवं
सुगन्धित पवन उससे.....‘

अहा,
क्या कहना कवि
तुम्हारे सौन्दर्य-बोध का
अब इन परिकल्पित-ऊँचाइयों पर
स्वप्निल भाव-तरंगों के साथ उड़ते
कलात्मक शब्द-यान से नीचे उतर कर
चलो उस अंचल में
जहाँ रहती है वह आदिवासी लड़की

देखो गौर से उस लड़की को
जिसके गोल-गोल गालों के ऊपर
-ललाट है
जिसके पीछे दिमाग
दिमाग की कोशिकाओं पर टेढ़ी-मेढी़ खरोंचें
यह एक लिपि है
पहचानो,
इसकी भाषा और इसके अर्थ को

जिन्हें तुम उन्नत उरोज कहते हो
प्यारा-सा दिल है उनकी जड़ों के बीच
कँटीली झाड़ियों में फँसा हुआ
घिरा है थूहर के कुँजों से
चारों ओर पसरा विकट जंगल
जंगल में हिंसक जानवर
जहरीले साँप-गोहरे-बिच्छू
इस केनवास में
उस लड़की की तस्वीर बनाओ कवि

अपना रंगीन चश्‍मा उतार कर देखो
लड़की की गहरी नाभि के भीतर
पेट में भूख से सिकुड़ी उसकी आँतों को
सुनो उन आँतों का आर्तनाद
और
अभिव्यक्त करने के लिए
तलाशो कुछ शब्द अपनी भाषा में

उतरो कवि,
लड़की की ‘पुष्ट‘ जंघाओं के नीचे
देखो पैरों के तलुओं को
विबाइयों भरी खाल पर
छाले-फफोलों से रिसते स्त्राव को देखो
कैसा काव्य-बिम्ब बनता है कवि

और भी बहुत कुछ है
उस लड़की की देह में
जैसे-
हथेलियों पर उभरी
आटण से बिगड़ी उसकी दुर्भाग्य-रेखाएँ
सारे बदन से चूते पसीने की गन्ध
यूँ तो
चेहरा ही बहुत कह देता है
और आँखों के दर्पण में
उसके कठोर जीवन का प्रतिबिम्ब-है ही

बन्द कमरे की कृत्रिम रोशनी से परे
बाहर फैली कड़ी धूप में बैठकर
फिर से लिखना
उस आदिवासी लड़की पर कविता।

बुधवार, २८ अक्तूबर २००९

बिरसा मुंडा की याद में

अभी-अभी
सुन्न हुई उसकी देह से
बिजली की लपलपाती कौंध निकली
जेल की दीवार लाँघती
तीर की तरह जंगलों में पहुँची
एक-एक दरख्त, बेल, झुरमुट
पहाड़, नदी, झरना
वनप्राणी-पखेरू, कीट, सरीसृप
खेत-खलिहान, बस्ती
वहाँ की हवा, धूल, जमीन में समा गई........
एक अनहद नाद गूँजा-
‘‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्‍‍तैनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दाव मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!’
उलगुलान!!
उलगुलान!!!‘‘

जंगल की धरती की बायीं भुजा फड़की
हरे पत्तों में सरसराहट......
सूखों में खड़खड़ाहट......
फिर
मौन हो गया
कुछ देर के लिए सारा आंचल।

खेलने-कूदने की उम्र में
लोगों का आबा बन गया था वह
दिकुओं’’ के खिलाफ
बाँस की तरह फूटा था धरती से
जैसे उसी पल गरजा हो आकाश
और
काँपे हों सिंहों के अयाल।
----------
’ विद्रोह
’’ शोषक

नौ जून, सन.....उन्नीस सौ
सुबह नौ बजे-
वह राँची की आतताई जेल
जल्लादों का बर्बर खेल
अन्ततः.....
बिरसा की शान्त देह!

‘‘क्या किया जाए इसका?‘‘
हैरान थे,
दिकुओं के ताकतवर नुमाइंदे
जिन्दा रहा खतरनाक बनकर
मार दिया तो
और भी भयानक
अगर दफनाया तो धरती हिलेगी
जो जलाया-आँधी चलेगी।

वह मुंडारी पहाड़ों-सी काली काया
नसें, जैसे नीले पानी से लबालब खामोश नदियाँ
उभरे पठार-सी चैड़ी छाती
पथराई आँखें-
जैसे अभी-अभी दहकते अंगारों पर
भारी हिमखण्ड रख दिए हों।

कुछ देर पहले ही तो हुई थी खून की कै
जेल कोठरी के मनहूस फर्श पर
उसी के ताजा थक्के.....
नहीं!
थक्के न कहें,
वे लग रहे थे-
हाल ही कुचले पलाश के फूल
या
खौलते लावा की थोड़ी-सी बानगी।

चेहरे पर
मुरझाई खाल की सलवटों की जगह
उभर आया एक खिंचाव
जैसे,
रेशा-रेशा मोर्चाबन्द हो
गिलोल की मानिन्द
धनुष की कमान-सी तनी माँसपेशियाँ
रोम-रोम जैसे-
तरकस में सुरक्षित
असंख्य तीरों की नोंक
गोया,
वह निस्पन्द बिरसा न होकर
आजाद होने के लिए कसमसाता
समूचा जंगल हो।
उन्हें इन्तजार था
सूरज के डूब जाने का
दिनभर के उजास को
वे छुपाते रहे सुनसान अन्धी गुफा में
जिसके दूसरे छोर पर गहरी खाई
वहीं उन्होंने
बिरसा मंडा से निजात पाई।

कहते हैं-
काले साँप को मारकर गाड़ देने से
खत्म नहीं हो जाती यह सम्भावना कि
पुरवाई चले और वह जी उठे
यदि ऐसा हो तो
परिपक्व जीवन को
धरती अपने गर्भ में नहीं रखती।
बिरसा
उनके लिए
साँप से खतरनाक था
वह दिकूभक्षी शेर था
और
वह भी अभी जवान।
इसलिए
उसे दफनाया नहीं
जलाया था-रात के लिहाफ में छुपाकर
यह जानते हुए भी कि
दुनिया में ऐसी कोई आग नहीं जो
दूसरी आग को जलाकर राख कर दे।

रात के बोझिल सन्नाटे ने स्वयं को कोसा
आकाष के सजग पहरेदारों की आँखें सुर्ख हुईं
हवा ने दौड़कर-
मुंडारी अंचल को हिम्मत बँधाई.....
उन्होंने
आदमी समझकर बिरसा को मार दिया
मगर बिरसा आदमी से बढ़कर था
वह आबा
वह ष्भगवान्ष्
वह जंगल का दावेदार......

उसकी आवाज
जंगलों में अभी भी गूँजती है-
''मैं केवल देह नहीं

मैं जंगल का पुश्‍तेनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!श्

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