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03 दिसंबर 2010

जहां आदिवासी महिलाओं के लिये जीवन का रास्ता युद्ध है -------------Posted by Reyaz-ul-haque

आप हमारी झोपड़ियों से कर्सद गीत (मृत्युगान) के अलावा कोई दूसरा गीत नहीं सुन
सकते। आप केवल वही साज सुन सकते हैं जो हम अंत्येष्टि संस्कार के समय बजाते
हैं। आप केवल वही नृत्य देख सकते हैं जो मृत्यु के बाद लोगों को श्रद्धांजलि
देते समय किया जाता है। यह एक भयावह स्थिति है। वर्तमान में हम पूरी तरह युद्ध
में व्यस्त हैं। इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। यह उस विचार को खारिज कर हो
रहा है कि महिलाओं की प्रकृति युद्ध के खिलाफ है।

हमारा दण्डकारण्य एक विशाल भूभाग है। कभी हम आदिवासी यहां के बहुसंख्यक निवासी
थे। लेकिन बाहरी लोगों के शासन के प्रारंभ (14 वीं शताब्‍दी ई०) जो कि पिछले
सात सौ सालों का लंबा काल है, से हमारी आदिवासी जनसंख्या क्रमश: कम होती चली
गई। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के आक्रमण के दौरान तथा 'स्वतंत्रता के बाद` इस
दर में वृद्धि हुई। कुछ स्थानों पर हम अल्पसंख्यक भी हो गये हैं। हमारा
दण्डकारण्य पूर्व तथा दक्षिण में सिलेरू, गोदावरी तथा प्राणहिता नदी, उत्तर में
रायपुर तथा पश्चिम में चंद्रपुर की सीमा से लगा हुआ है। महाराष्ट्र छत्तीसगढ़
तथा उड़ीसा के कुछ भागों में फैला व्यापक जंगल इसे विशिष्ट क्षेत्र बनाता है।
इस क्षेत्र में विभिन्न परंपराओं की कई आदिवासी प्रजातियां रहती हैं । इनमें से
अधिकांश दोरला, मारिया तथा मुरिया आदिवासी हैं। हम अपनी भाषा में स्वयं को
'कोयाथर` कहते हैं । हमारी भाषा कोया है। अकादमिक पुस्तकों में हमारा उल्लेख
'गोंड़` के रूप में मिलता है। पचपन हजार वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा विस्तृत इस
व्यापक क्षेत्र में हमारी जनसंख्या आधे करोड़ से ज्यादा है।


आदिवासियों में महिला तथा पुरुषों का अनुपात लगभग समान है। बाहरी शासकों ने-जो
केवल हमारा शोषण और यहां डकैती करते हैं-कभी हमारे विकास के बारे में नही सोचा।
हमारे श्रम का सस्ते में शोषण तथा हमारे जंगलों से लूट में ब्रिटिश शासन के समय
से ही प्रतिवर्ष लगातार वृद्धि हो रही है। यह कभी कम नहीं हुआ। उन्होंने हमें
घने आंतरिक जंगलों तक सीमित कर दिया। इससे गुजरने वाला हर दिन हमारे जीवन में
असहनीय होता गया। ताजा आंकडे बताते हैं कि दक्षिणी बस्तर के दंतेवाड़ा में
साक्षरता दर 25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है तथा महिलाओं में तो 17 प्रतिशत से भी
कम है। कुपोषण से मरने वाले हमारे बच्चों की संख्या, जीवित बच जाने वालों से
कहीं ज्यादा है। सरकारी आंकड़े स्वयं बताते हंै कि यहां शिशु मृत्यु दर बहुत
उच्च है। एक महिला के लिए बच्चे को जन्म देने के बाद जीवित बचा रहना दूसरा जन्म
जैसा होता है। अपना शरीर ढकने के लिए हमारे पास कपडे नहीं हैं। हमारे पास
पर्याप्त भोजन नहीं है कि हम दो जून अपना पेट भर सकें। हमारा जीवन उत्पादन के
लिए लगातार संघर्ष है। पुर्नत्पादन प्रक्रियाओं ने हमें जर्जर बनाकर छोड़ दिया
है। हालांकि हम पूरा दिन काम करते हैं फिर भी हम आगे नही बढ़ पाते । हमारे दिन
का अधिकांश समय घरेलू कामों, वन उत्पादों के संग्रहण, कृषि कार्य आदि में
गुजरता है। यहां तक कि गर्भवती महिला, वृद्ध महिला या तीन साल से ऊपर की बच्ची
हो, किसी को कोई राहत नहीं है। कड़ी मेहनत के बावजूद, भूमंडलीकरण की पृष्ठभूमि
में हम अपनी रोज की रोटी खरीद पाने में असमर्थ हैं। जिससे किसी अन्य जगह भागने
को मजबूर हैं। हमारे लिए अपने परिवार को संभालना कठिन होता जा रहा है। हम लड़
रहे हैं और गंवा रहे हैं। एक दिन अपने जीवन संघर्ष में विजयी होने की आशा के
साथ हम लड़ रहे हैं और अपनी जान गंवा रहे हैं।

हिंसा से जूझना हमारे जीवन का एक अंग है। घरेलू हिंसा की तुलना में राज्य-हिंसा
का मुकाबला करना बहुत कठिन होता जा रहा है। परंपरागत हिंसा के बावजूद आदिवासी
परंपरा में यह (हिंसा) पूरी तरह असहनीय है। कम से कम वे जीवन की आशा को नहीं
मारते। सामान्यत: वे आपके अपने आदमियों से किये गये असंख्य समझौतों को नहीं
तोड़ते। राज्य हिंसा हमारे जीवन को शारीरिक , मानसिक (मनोवैज्ञानिक), यौन (लिंग
संबंधी), राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक स्तर पर बर्बाद कर रही है।
इसी कारण पहले हम राज्य हिंसा से लड़े और जीते। हमारा अस्तित्व इसीलिए है और हम
लगातार चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। श्रम से भरे हमारे जीवन में वैज्ञानिक
चिंतन को स्थगित कर, सत्ता में बैठी सरकारें हमारे स्वास्थ्य से खेलती रहती
हैं। हममें से अधिकतर यह तक नहीं जानते कि संविधान के अनुसार हमारे लिए
नि:शुल्क शिक्षा व नि:शुल्क स्वास्थ सेवाओं का प्रावधान है। विकास से हजारों
किलोमीटर दूर विशालकाय घने जंगलों में बिखरे गांवों के आदिवासी किसी शिक्षा या
स्वास्थ्य सेवा के बारे में सोच तक नहीं सकते। कब कौन सी महामारी फैल जायेगी
कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि कोई मामूली बीमारी या दर्द किसी की जान का
कब खतरा बन जाएगा। हम अभी भी सिकल सेल जैसी बीमारी से मर रहे हैं। जो अभी भी
असाध्य बनी हुई है। फिर भी लोग कहते हैं कि इस दुनिया का बहुत विकास हुआ है।
उपयुक्त भोजन की कमी तथा अस्वच्छ वातावरण से होने वाली बीमारियां जैसे टी.वी.
तथा कोढ़ प्रतिवर्ष फैल रही है। हमारी गरीबी तथा बुरी आदतों जैसे धूम्रपान,
शराब और अब उपभोक्तावादी साम्राज्यवादी संस्कृति के प्रहार के कारण कई हानिकारक
तंबाकू, मादक द्रव्य, गुटखा आदि का प्रचलन तेजी से हो रहा है और ये लगातार फैल
रहे हैं। हमारे जीवन को तबाह कर रहे हैं। जो कोई भी हम लोगों के बारे में जानता
है, उसे यह बताने की कोई जरूरत नहीं है कि आदिवासी जीवन इन सभी के खिलाफ एक
संघर्ष है। परिणाम स्वरूप बैगा और अबुझमाड़ मारिया उस आदिवासी समुदाय का हिस्सा
है जो छत्तीसगढ़ में आज लुप्त होती जा रही है।
हमारा परिवेश हमेशा विस्फोटों से गूंजता रहता है। हमारे विशाल दण्डकारण्य
क्षेत्र में असंख्य खदानें तथा अमूल्य खनिज संपदा है। अगर आदिवासियों का कोई
शुभचिंतक इस देश की महत्वपूर्ण खदानों तथा खनिज संसाधनों और बड़ी परियोजनाओं को
गिनना तथा मापना चाहे तो लगभग सभी की सभी आदिवासी क्षेत्रों में ही मिलेंगी। यह
तथ्य पहले की अपेक्षा आज ज्य़ादा महत्वपूर्ण है। केंद्र तथा राज्य सरकारों
द्वारा दलाल, नौकरशाह, पूंजीपति तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सैकड़ों समझौते
पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए हैं जो हमारे आस्तित्व के लिए खतरा हैं। बैलाडीला,
सूरजगढ़, चारगांव, रावघाट, नगरनार, पल्लेमाडी तथा कुव्वेमारा में विस्फोटों से
हमारी जमीन को छिन्न-भिन्न कर दिया गया है। हमारे पड़ोसी कलिंगनगर, राउरकेला,
झारखण्ड और छोटा नागपुर को भी इसी तरह अलग-थलग किया जा रहा है। इन खदानों ने न
केवल हमारे वातावरण को प्रदूषित किया है बल्कि इन परियोजनाओं ने 90 लाख से
ज्य़ादा आदिवासियों को बेघर कर दिया है। इससे केवल हमारी जनसंख्या ही नहीं
प्रभावित हुई है बल्कि हमारे सह-आस्तित्व में रहने वाले सभी जीवित प्राणियों को
नुकसान पहुंचा है। धीरे धीरे वे नष्ट हो रहे हैं। वनस्पतियों की दुर्लभ
प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं। उपरोक्त अलगाववादी परिस्थितियों के कारण हम
अपने आस्तित्व तथा अपनी जनता के बहुमुखी विकास के लिए युद्ध करने को बाध्य हैं।
इस नारे के साथ कि : 'जल, जंगल, जमीन हमारी है! हमारी है!

संघर्ष का विवरण

आधुनिक राज्य के शासन का दखल जैसे-जैसे हमारे जीवन में बढ़ रहा है वैसे वैसे ही
हमारा संघर्ष तेजी से फैल रहा है। जब हम इस तथ्य को याद करते हैं कि आदिवासियों
की ओर से ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर पहली गोली चलाई गई थी तो हम तुरंत ही
अपने दण्डकारण्य में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ महान विद्रोह के इतिहास को
याद करते हैं। 1825 ई.के प्रारंभ में पारलकोट जनविद्रोह के नेता गेंद सिंह के
नेतृत्व में आदिवासी महिला पुरुषों ने ब्रिटिश-मराठा सेना के खिलाफ छापामार
युद्ध का ऐलान किया। इसे परास्त कर दिया गया था। तब से 1920 ई. तक विभिन्न
जगहों में स्थानीय स्तर पर जन विद्रोह हुए। इसमें भारत में प्रथम स्वाधीनता
संग्राम के दौरान 1857 ई. में हुआ कोया विद्रोह उल्लेखनीय है। हमारे वीर
बाबूराव सेडमेक तथा वेंकटराव जैसे आदिवासी बहादुर योद्धाओं ने विदेशी शासन को
पराजित किया और अपने जीवन को बलिदान कर फांसी के फंदे को चूम लिया। 1910 ई. का
भूमकाल विद्रोह अविस्मरणीय है। इस महान विद्रोह में ब्रिटिश लोगों की गोलियों
से सैकड़ों आदिवासी शहीद हुए। ब्रिटिश हुकूमत के सैनिकों ने इस विद्रोह के दमन
के लिए हमारे जंगलों में भयंकर आतंक मचाया। सैकड़ों महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों
को अपनी जान गंवानी पड़ी। कई पीढ़ियों के गुजरने के बाद भी कुटुल, दरवेड़ा,
कचपाल, छोटा डोंगर, ओड़चा, गीदम तथा कोंडागांव के लोग नरसंहार, अत्याचार, लूट,
प्रताड़ना, जिंदा जलाया जाना, संपत्ति के नुकसान आदि को तथा निर्दयी ब्रिटिश
लोगों के सैकड़ो साल पहले किए गए अपराध को आज तक नहीं भूल पाये हैं। उनके सैनिक
बहुत अधिक संख्या में तैनात थे। महान नेता गुंदाधर आज भी लोगों को लगातार
प्रेरित कर रहे हैं और संघर्ष का पर्याय बन चुके हैं। इसके पचास साल बाद, 1960
ई. के प्रारंभ में 'आजाद भारत` में नेहरू की सेनाओं ने बस्तर के राजा
प्रवीरचंद्र भंजदेव और उनके अनुयायियों को निर्दयतापूर्वक मार दिया क्योंकि वे
वास्तविक आदिवासी मांगों के लिए लड़ रहे थे। इस तरह हम ऐतिहासिक नजरिये से
देखते हुए पाते है कि पिछले दो सौ साल प्रारंभ में साम्राज्यवादी तथा बाद में
भारतीय शासक वर्ग के खिलाफ हमारे आदिवासी संघर्ष का इतिहास है। यह कोई साधारण
संघर्ष नहीं है। यह एक युद्ध है। यह जीवन के लिए एक संघर्ष है। हम भी आधुनिक
राज्य तथा इसके विशाल औजारों से लड़ रहे हैं। हमारे पूर्व की पीढ़ी 'पेडियार`
(योद्धा) थी। वह एक जनयुद्ध था। सभी महिला तथा पुरुष इस जनयुद्ध का अंग थे। वे
सभी युद्ध में हार के बाद समाप्त हो गए। लेकिन हम नहीं थके हैं। दो-ढाई दशकों
से हम स्पष्ट क्रांतिकारी राजनीति के दिशा निर्देशों के अन्तर्गत लड़ रहे हैं ।

1980 से हमारे इलाके में परिवर्तन की नयी हवा का प्रवेश हुआ। हमारी पिछली पीढ़ी
द्वारा भुला दिया गया शब्द 'दण्डकारण्य` हमारे जंगलों, झोपड़ियों और हमारे
दिलों में दुबारा गूंजने लगा। हमने पहली बार 'जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार
है!` नारा सुना इसलिए हमें शोषण और दमन के खिलाफ लड़ना होगा और इसे खत़्म करना
होगा। हमने संघर्ष और सत्ता के बीच के अंर्तसंबध को समझा। सुबह से शाम तक श्रम
से भरे हमारे दुष्कर जीवन को कहां छला गया, यह हमने समझा। यद्यपि 1964 ई. में
नेहरू की सेना द्वारा जब गोली चली तो हमें समझ में आया था कि 1947 ई.में हुए
सत्ता हस्तांतरण ने हमारे जीवन को नहीं बदला है। भारतीय शासक वर्ग की नीतियां,
जिनके लिए यह तथ्य है कि '1980 से हम संगठित हो रहे हैं `, असहनीय है हमारे
दृष्टिकोण को और दृढ़ बना रही है।

हमारा युद्ध जंगलों पर अधिकार के लिए है!

स्वतंत्रता के पहले से हमें अपने जंगलों से बेदखल कर दिया गया था। हम ब्रिटिश
कानून के बंदी बन गये। ब्रिटिश लोगों ने पहली बार 1953 ई. में हमारे जंगलों में
प्रवेश किया था और हम उनके कानून के शिकार बन गये। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में इन
जंगलों पर और कई कानून थोपे गये और जंगलों की जमीन हमारे हाथों से छीन ली गई।
यह महज संयोग नहीं है कि अर्ध-सामंती तथा अर्ध-औपनिवेशिक चरित्र वाले भारतीय
शासक वर्ग ने 1980 ई.में जंगलों को राज्य सूची से केन्द्र सरकार की गोद में
सौंप दिया। संथालों द्वारा बहुत दूर एक जगह नक्सलबाड़ी में 1967 ई० में भड़की
जंगल चिंगारी को बुझाने के लिए यह एक कुख्यात अध्यादेश था। इसके कारण वैधानिक
तरीके से जंगल की जमीन मिल जाने की हमारी उम्मीद राख में मिल गई। अगर पहले हम
यह सोचें कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां की 70 प्रतिशत जनता किसान है
तो वहां मुख्य मुद्दा ज़मीन का है तब यह स्पष्ट हो जाता है कि 8 प्रतिशत की
आदिवासी आबादी का मुख्य मुद्दा भी जमीन ही है। 1980 ई० के केंद्रीय अध्यादेश के
अनुसार आदिवासी कृषि जमीन को सरकारी पट्टा से खारिज कर दिया गया। वास्तव में
हमें इसके पहले भी जंगल की जमीन का अधिकार पूर्वक प्रयोग करने की स्वतंत्रता
नहीं थी। जंगल की जमीन में खेती का अर्थ है शोषक सरकारी वन विभाग के साथ युद्ध
करना। हमारे द्वारा जंगल की जमीन पर खेती करने की भनक अगर वन विभाग को लगी तो
वे हम पर गिद्ध की तरह झपट्टा मारेंगे। घरों को जलाना, महिलाओं से बलात्कार,
भयंकर पिटाई, लघु संपत्ति जैसे मुर्गियां, बकरियां, सुअर, ईप्पा (फूलों से
निकाला गया द्रव्य) ताड़ी (पेड़ों से निकाला गया द्रव्य) या कुछ पैसों आदि का
लूटना 1980 के दशक से लगातार जारी है। इसके अलावा दानवी कानूनों का प्रयोग कर
किसानों को गिरफतार करके बंधक बना लिया जाता है। अब तक इस तरह के हजारों मामले
अदालतों में लंबित हैं। जमीन और खेती के बिना किसानी का कोई जीवन नहीं है। इस
तरह के कठोर दमन के बावजूद हम जमीन के लिए लड़े। यह हमारा मुख्य संघर्ष था। जब
उन्होंने हमारी बोई हुई जमीन को नष्ट करने की कोशिश की तो हमने उन्हें रोका। जब
उन्होंने खेती करने से रोकने की कोशिश की तो हमने उन्हें बाँध दिया और हम सभी
आदिवासी महिला और पुरुषों ने मिलकर खेत जोत लिया। इससे हमारा आत्मविश्वास बढा।
हमने शोषणकारी सरकारी पट्टा के बारे में ध्यान देना बंद कर अपनी खेती की। हमने
घोषणा की कि वन विभाग के किसी अधिकारी-जो हमें शैतानों की तरह परेशान करता
है-को जंगल के भीतर नहीं घुसना चाहिए। हमने देखा कि बच्चों की नई पीढ़ी उनके
दमन के छाया में बडी नहीं हो रही है। पिछले पच्चीस वर्षों में हमने दो लाख एकड़
जंगल की जमीन का इस्तेमाल खेती के लिए किया है।

यहां हम संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा लाये गये वन विधेयक कानून की
चर्चा करना चाहेंगे। हमारे देश में पिछले दो ढाई दशक से आदिवासी इलाकों में
जनता के जर्बदस्त संघर्षों के कारण सरकार यह कह रही है कि वह आदिवासियों द्वारा
खेती की जा रही जमीन का पट्टा देगी। निश्चित रुप से यह किसी प्रेम या सहानुभूति
से नहीं किया जा रहा है। हमें यह महसूस करना चाहिए कि इस प्रक्षेपित विधेयक के
पीछे एक बहुत बड़ी साजिश है। कई राज्य सरकारों ने कारपोरेट क्षेत्र के साथ
समझौते किये हैं । और बड़े पूंजीपतियों को उत्खनन तथा खनिजों को निचोड़ने के
लिए वृहद पैमाने पर जंगल की जमीन सौंपी जा रही है। परिणाम स्वरूप कई आदिवासी
समुदायों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। हम वैसे भी नागरनार (बस्तर) कलिंग
नगर, राउरकेला (उड़ीसा) बैलाडिला तथा अन्य जगहों के परिणाम भुगत रहे हैं। इस
कारण हमें इन समझौतों का विरोध कर इन्हें रोकना चाहिए। हम उनके इस दुष्प्रचार
का पर्दाफाश करेंगे कि इन औद्योगिक विकासों से अदिवासियों का विकास होगा। शोषक
सरकारी कानूनों के खिलाफ एक जमीनी युद्ध लड़कर हम सब इसका विरोध करेंगे।

वनउत्पाद और वनसंपदा हमारी है

हमारे आदिवासी जीवन की तुलना ईंधन से की जा सकती है। वन क्षेत्रों में बड़ी
बड़ी परियोजनाओं के कारण लाखों आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं। लेकिन हमें कहीं
कोई सिंचित जमीन नहीं मिल रही है। हलांकि हम विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चे माल
की निरंतर अपूर्ति करते हैं फिर भी एक दिन में एक मील चलना हमारे लिए असंभव
होता जा रहा है। थोडा सा भी हमारा प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए नहीं है। परिणाम
स्वरुप हम अन्न संग्रहण के लिए वन उत्पादों को इकट्ठा करते हैं जो आदिमानव की
स्मृति है। सरकार ने वन उत्पादांे का मनमाने ढंग से विभाजन कर दिया और कहा कि
हम केवल लघु वन उत्पादों का ही संग्रहण कर सकते हैं। बड़े वन उपजों पर हमारे
अधिकार को छीन लिया गया। हलांकि सरकार ग्राम सभाओं पर खूब लफ्फाजी करती है
लेकिन व्यवहार में उनका कभी सम्मान नही किया गया। जो लोग 73 वें संविधान संशोधन
को एक क्रांति के रूप में प्रचारित करते हैं उन्हें अब आंखें खोलकर देखना चाहिए
कि वे किस भ्रम में हैं। हम वन उत्पादो का संग्रहण कई सीमाओं में रहकर करते
हैं।

एक ओर जहां हम उन उत्पादों को इकट्ठा करने में अपनी रीढ़ तोड रहे हैं उससे
ज्यादा उन पर अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। जिन ढेर सारे वन उत्पादों को लूटकर
बाहर ले जाया जाता है उनका संग्रहण भी हम ही करते हैं। इसके लिए हमें बहुत कम
पैसा दिया जाता है। तेंदू पत्ता के संग्रहण, पेडों की कटाई, पत्तल बनाने के लिए
एकत्र की जाने वाली पवुरू पत्तियों आदि के लिए बहुत कम दर पर भुगतान किया जाता
है। हमारा शोषण करने वाले पूंजीपतियों को मालिकाना अधिकार मिला हुआ है। इसी तरह
संग्रहित वन उत्पादों को लेकर जब हम बाजाऱ जाते हैं तो हमारा भंयकर शोषण होता
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है। इस साम्राज्यवादी युग में कुछ भी स्थानीय नहीं बचा है। सब कुछ विश्व बाजार
से जुडा हुआ है। भूमंडलीकरण की नीतियों के कारण खुदरा व्यापारी बाहर हो रहे हैं
और ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं बचा है जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने प्रवेश न
किया हो। अकेले बस्तर से 1100 करोड़ रुपये प्रति वर्ष से ज्यादा कमाने के लिए
बड़े बड़े निगमित घराने गला काट प्रतियोगिता कर रहे हैं। केवल उन्हें रोक कर ही
हम जंगलों पर अधिकार के संघर्ष को विजयी बना सकते हैं। लोहा, मैग्नीज, कोयला,
चूनापत्थर, ग्रेनाईट, बॉक्साईट, डोलामाईट, टीन, किंबरलाईट तथा कोरंडम के अलावा
सोना तथा हीरा भी यहां प्रचूर मात्रा में पाया जाता है। कम्प्यूटर युग में,
जहां कच्चे माल को निकालकर औद्योगिक वस्तुओं में तब्दील किया जाता है। वहां
मानव जीवन इससे अलग नहीं बचा रह सकता। इसी कारण टाटा, एस्सार, जिंदल, निक्को,
रिलायंस, गोदावारी इस्पात, रायपुर लीड्स आदि स्पर्धारत हैं। वैसे भी हमारे जीवन
को उनहोंने हर जगह लूटा है। जो कुछ बचा है उसका भी शोषण करने के लिए राज्य
सरकारों के साथ घुल मिल रहे हैं और हमारे इलाके में सड़क बना रहे हैं जो कि
खनिज संसाधनों से भरा हुआ है। वे हमसे औद्योगिक विकास से स्वर्ग लाने का दावा
कर रहे हैं । आदिवासियों के बीच की विशिष्ट मध्यकालीन सामंती ताकतें पूरी तरह
उनका सहयोग कर रही हैं। वे सभी निर्दयी तथा फासीवादी दमनकारी ताकतों को जंगलों
में भर रहे हैं। जो लोग अपने आस्तित्व के लिए लड़ रहें हैं उन्हें वे अलग थलग
कर रहे हैं। नागरनार और कलिंग नगर हमारे सामने सबसे ताजा उदाहरण हैं।
कुव्वेमारा, चारगांव तथा रावघाट-जहां जनता के प्रतिरोध के कारण उन्हें अपना
शोषण बंद करना पड़ा-हमारे लिए आदर्श हैं। उनके लाभ के लिए हम अपने इलाकों पर
उन्हें अधिकार करने तथा अपने आपको मारने की इजाजत नहीं देंगे। हम अपने अस्तित्व
के लिए लडेंगे । पिछले पच्चीस वर्षों के संघर्ष को और तेज करने का हमारा संकल्प
है। हम प्रतिज्ञा करते हैं कि, 'हम आपस में नही लड़ेंगे और इस देश की सभी
आदिवासी तथा अन्य शोषित जनता के साथ मजबूत एकता क़ायम करेंगे।`
जनता की संस्कृति को पतनशील बनाने वाले सरकारी पर्यटन को बंद करो !

दण्डकारण्य का अविभाजित बस्तर 'छत्तीसगढ़ कश्मीर` के नाम से जाना जाता है। इस
क्षेत्र में घने जंगल विशिष्ट वनस्पतियां, पक्षियों की विशिष्ट प्रजातियां, जल
प्रपात, प्राचीन गुफायें , मानव ऐतिहासिक प्रगति को समझने में सहायक मूल्यवान
प्राचीन निर्मितियां, मंदिर तथा धार्मिक प्रचार केंद्र्र पाये जाते हैं। इस
क्षेत्र का हस्तशिल्प विश्व विख्यात है। भारत तथा विदेशों से कई पर्यटक यहां
घूमने आते हैं । विभिन्न मानव समुदायों के आपसी विकास को समझने के लिए ये सब
सहायक हैं। शोषक सरकार का एक मात्र महत्वपूर्ण काम यहां गलाकाट प्रतियोगिता
करके रुपये को डॉलर में तब्दील करना है। इन खूबसूरत जगहों को राष्ट्रीय उद्यान,
वन्य जीव सुरक्षागृह, बाघ संरक्षण केंद्र आदि जैसे नाम दिये गये हैं। पर्यटकों
को लुभाने के लिए इनके बारे में अभूतपूर्व तरीके से प्रचार प्रसार किया जाता
है। मौज मस्ती भरी सुविधा प्रदान करने के लिए यहां सितारा होटल तथा अन्य सैरगाह
भवनों का निर्माण किया जा रहा है। सरकार इसकी स्वयं सबसे बड़ी प्रर्वतक है।

राज्य हिंसा के खिलाफ विद्रोही जनता

1980 तक हमारा जीवन असहनीय था। हमें क्रूर राज्य के दमन का सामना करना पड़ता
था। हमें पूरी दुनिया से कटकर अपनी सीमित दुनिया में जिंदा लाश बनकर रहना पड़ता
था। बिना किसी विकास के शोषण , दमन तथा जमींदारों, साहूकारों, ठेकेदारों, बड़े
पूंजीपतियों, सरकारी अधिकारियों तथा अपराधियों की अधीनता के कारण हमारा
श्रमयुक्त जीवन बरबाद हो गया था। इन सब मामलों के लिए 1980 हमारे जीवन का अहम
मोड़ था । मनुष्य के रूप में अभिमान के साथ अपना सर उठाकर कैसे जिया जाय हमने
सीखा और इतिहास में पहली बार संगठित होने लगे। भारी संख्या में आदिवासी महिला
और पुरुष जनसंगठनों से जुड़ने लगे। एक अलग महिला संगठन का निर्माण किया गया।
हजारों गांवों में संगठन बनने लगे। सैकड़ों सदस्यों वाले संगठन विभिन्न स्तर पर
नेतृत्वकारी भूमिका में आए। पचास हजार से ज्यादा की सदस्यता के साथ महिला संगठन
की इकाई काम कर रही है।

ऐसा एक भी संघर्ष नहीं है जिसको हम संगठित महिलाओं ने नहीं लड़ा हो। सामाजिक और
राजनीतिक तथा दैनिक जीवन से जुड़े कई मुद्दों के लिए हमने संघर्ष किया। इनमें
से कई में हमने सफलता हासिल की। महिला और पुरुष बराबर हैं, समान मजदूरी के लिए
समान भुगतान, महिलाओं पर पितृसत्तात्मक हिंसा बंद करो आदि नारों के साथ हमने
आत्मसम्मान के लिए संघर्ष किया। परिणामत: हमारे क्षेत्र में महिलाओं को संपत्ति
में बराबर की भागीदारी तथा समान काम के लिए समान भुगतान मिलने लगा। अब महिलाओं
पर पहले जैसा अत्याचार हिंसा तथा अधीनता नहीं है। घरेलू हिंसा में बहुत कमी आई
है। महिलाओं की राय का सम्मान किया जाने लगा है। ग्रामीण समाज में लिए जानेवाले
सभी निर्णयों में महिलओं की भागीदारी होने लगी है। लेकिन यह सारे परिवर्तन
इच्छाविहीन रहकर नहीं हुए हैं। दंडकारण्य में होनेवाला प्रत्येक बदलाव लड़ाई के
बाद ही हासिल किया गया है। इस संघर्ष प्रक्रिया में हमें टाडा और पोटा जैसे
कुख्यात दानवी कानूनों के अंतर्गत बहुत परेशान किया गया। हम अभी भी इनसे जूझ
रहे हैं। एक निर्दोष आदिवासी महिला पौड़ीबाई (मशेली, देवोरिथा, गोंदिया जिला,
महाराष्ट्र) को टाडा के अंतर्गत पकड़ा गया और छह साल तक जेल में सड़ाया गया।
छूटने के कुछ दिन बाद ही बीमारी के कारण उसने दम तोड़ दिया। इन शोषक सरकारों के
द्वारा आदिवासियों के साथ कैसे क्रूर व्यवहार किए जाते हैं यह इस तथ्य से आसानी
से समझा जा सकता है कि कैसे झूठा आरोप साबित करके चैतीपल्लो नामक महिला को उम्र
कैद दी गई जो पहली महिला उम्रकैदी थी। वह महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के
भैरमगढ़ ताल्लुका के मल्लमपुदुर गांव की रहनेवाली थी। धूर्त पुलिस ने दावा किया
कि निर्दोश चैतीपल्लो 1991 में लाहिड़ी पुलिस थाने पर आक्रमण में शामिल थी।
परिणामस्वरूप टाडा न्यायालय द्वारा अक्टूबर 2004 में फैसला सुनाया गया जिससे
उन्हें अपने एक वर्ष छोटे बच्चे के साथ 18 साल तक सीखचों के पीछे रहने को बाध्य
किया गया।

गिरफ्तारी और कैद के अलावा महिलाओं को पुलिस को अन्य कई घृणित हिंसाओं का सामना
करना पड़ता है। प्रताड़ना, यौन उत्पीड़न तथा मानसिक उत्पीड़न आदि आंदोलनरत
इलाकों की महिलाओं के लिए सामान्य बात बनती जा रही है। इतना ही नहीं जिन चार
महिलाओं ने अन्य महिलाओं का विश्वास हासिल किया तथा जो नेतृत्वकारी भूमिका में
थी उन्हें देवरी पुलिस द्वारा 1993 में गिरफ्तार किया गया था तब से आज तक वे
गायब हैं। संघर्षरत महिलाओं को गोलीबारी में मार देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
दिसंबर 2002 के अंत में हजारों आदिवासी महिला तथा पुरूषों ने अपनी महत्वपूर्ण
मांगों के लिए पर्णशाला (खमाम जिला आंध्रप्रदेश) की सड़कों पर प्रर्दशन किया।
खूंखार आंध्रप्रदेश पुलिस ने उनपर गोली चलाई जिसमें कुछ प्रदर्शनकारी मारे गये
थे। जो महिलाएं पुलिस की क्रूरता तथा अत्याचारों का विरोध करती हैं उन्हें मार
दिया जाता है और प्रचारित किया जाता है कि उन्होंने नक्सलियों को मार गिराया
है। बारहवीं लोकसभा चुनाव के पहले मार्च 2004 में दांतेवाड़ा के भैरमगढ़ के
ब्लॉक पल्ले गांव की बुदिरी के साथ पुलिसवालों ने बलात्कार किया और फिर उन्हें
मार डाला। इससे दुनिया के सामने संसदीय लोकतंत्र का असली चेहरा बेशर्मी से
उजागर हुआ। युवतियां इस तथ्य को जानती हैं कि राज्य हिंसा हम पर फासीवादी तरीके
से थोपी जा रही है जबकि राज्य शांति व अहिंसा के मंत्रों का उपदेश भी दे रहा है
और खोखला गांधीवाद खाली हाथों से पराजित नहीं किया जा सकता। इसके लिए दंडकारण्य
सश संघर्ष के अंग के रूप में हथियार उठाना ही होगा। वे (दंडकारण्य के) लोग
हमारे समर्थन में दृढ़ता से खड़े हैं। हम उनकी बहादुरी का अभिवादन करते हैं।
उनके बलिदान 'आधा आकाश हमारा है` की खुशियां ला रहे हैं। दंडकारण्य के
क्रांतिकारी आंदोलन को पूरी तरह छिन्न भिन्न करने का प्रयत्न-जो गिरफ्तारी,
अत्याचार, हिंसा, कत्ल, गुमशुदगियां आदि से प्रमाणित होता है, हमारे आंदोलन को
नहीं रोक सकता। जून 2005 में सेना द्वारा दमन की शुरूआत हुई थी जो 'सफाई
अभियान` के रूप में जाना जाता है। वह अभी भी चल रहा है उसका नाम है सल्वा
जुडूम।

सल्वा जुडूम
सल्वा जुडूम 18 जून 2005 को आरंभ किया गया था। तब से ही आदिवासी लोगों को मारा
जा रहा है। मीडिया के द्वारा इसे गलत और व्यापक तरीके से प्रचारित किया गया कि
यह एक स्वत: स्फूर्त शांति मार्च है। शासक वर्ग संपूर्ण विश्व को पूरी तरह से
एक अलग तस्वीर दिखा रहा है कि गांधी जी के रास्ते के अनुसार इस शोषणकारी
व्यवस्था के खिलाफ यह शांतिपूर्ण क्रांति है। एक वर्ग को उखाड़ने तथा उसकी
राजनीतिक ताकत को छीनने के लिए एक वर्ग द्वारा युद्ध किया जा रहा है। दंडकारण्य
के निर्माण के इतिहास का अध्ययन वर्गसंघर्ष के इतिहास का अध्ययन है। हम जब तक
इसको नहीं समझेंगे सेना, पुलिस, अर्धसैनिक बल भारतीय सरकार के प्रमुख विभागों
के उच्चाधिकारी, सरकारी अधिकारी, मंत्रालय, विपक्षी कांग्रेस पार्टी के शांति व
हिंसक तरीकों द्वारा चलाये जा रहे इस दमन अभियान को नहीं समझ सकते। वास्तव में
यह एक दमनकारी सैन्य अभियान है। यह जनता का सामूहिक संहार है। यह आखिर
दंडकारण्य में ही क्यों हो रहा है?

वर्तमान समय में दंडकारण्य के बारे में बात करने का तात्पर्य है भ्रूण रूप में
उभरती जनता की शक्ति के बारे में बात करना। दंडकारण्य के बारे में जानने का
मतलब है हर जगह स्थानीय सामंती वर्चस्व के खिलाफ जनता द्वारा सर्वाधिक जनवादी
तरीके से संपूर्ण आजादी के साथ एक नये विकल्प की तथा एक नई व्यवस्था के निर्माण
के बारे में जानना। इसको (सल्वा जुडूम को) को पीछे से भारत के बड़े पूंजीपतियों
का सहयोग मिल रहा है। यह समस्या उनके तात्कालिक एजेेंडा से संबंधित हितों से
जुड़ी है इसलिए सल्वा जुडूम की शुरूआत हुई। जो मानवाधिकार संगठन हमारे क्षेत्र
में आए सभी ने पर्याप्त प्रमाण दिखाया कि सल्वा जुडूम का मतलब हत्या, अत्याचार,
लोगों को जिंदा जलाना, महिलाओं पर क्रूर आक्रमण, शोषण , संपत्ति का नुकसान,
खेती तथा घरों का जलाना है। लगभग सौ साल पहले भूमकाल विद्रोह (1910) के दमन के
लिए ब्रिटिश शासन द्वारा भेजी गई मद्रास रेजीमेंट के भयंकार उत्पात मचाने तथा
नरसंहार करनेवाले लोग अभी भी बचे हैं। बच्चों और बूढ़े लोगों को भी नहीं बखशा गया
है। गर्भवती महिलाएं मारी जा रही हैं। इस दमन अभियान में महिलाओं को क्रूर दमन
का सामना करना पड़ रहा है। बलात्कार के अलावा ऐसी महिलाओं की संख्या-जो अपने
पति को खो चुकी हैं और बच्चों को जन्म दे रही हैं-में लगातार वृद्धि हो रही है।
अनाथ बच्चों की संख्या बढ़ रही है। पिछले आठ महीने में लाइसेंसधारी गुंडों
(पुलिस) तथा सल्वाजुडूम के गुंडों द्वारा सौ से भी ज्यादा महिलाओं का बलात्कार
किया गया है। स्थानीय पुलिस द्वारा अतिरिक्त बल के साथ मिलकर विस्तृत पैमाने पर
पुलिस शिविर लगाया गया है। इन शिविरों में जिन्हें नक्सलवादियों द्वारा
प्रभावित लोगों के लिए राहत शिविर के नाम से जाना जाता है उनके (पुलिस तथा
सल्वाजुडूम के गुंडों) आक्रमण से डरे हुए लोग रह रहे हैं। ये शिविर यातना
शिविरों की याद दिलाते हैं। इन शिविरों में कई औरतों का बलात्कार किया गया है
और अब वे गर्भवती हैं। अब तक अठारह सौ घरों को जलाया जा चुका है। चार करोड़ से
ज्यादा की लघु संपत्ति का (मुर्गियां, बकरी, घर, खेती आदि) नुकसान हो चुका है
और 150 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। सल्वा जुडूम के नाम पर यह विध्वंस हमारी
कोया समुदाय को पूरी तरह अलग-थलग करने के लिए है। वे हमारी झोपड़ियों से शांति
, खुशहाली, संबंध, सहयोग, आदर और न्याय को बर्बाद कर रहे हैं। हम अपनी यातना,
त्रासदी, क्रोध, अन्याय, बर्बरता और कठिनाइयों के साथ बचे हुए हैं। अब आप हमारी
झोपड़ियों से कर्सद गीत (मृत्युगान) के अलावा कोई दूसरा गीत नहीं सुन सकते। आप
केवल वही साज सुन सकते हैं जो हम अंत्येष्टि संस्कार के समय बजाते हैं। आप केवल
वही नृत्य देख सकते हैं जो मृत्यु के बाद लोगों को श्रद्धांजलि देते समय किया
जाता है। यह एक भयावह स्थिति है। इनसे बाहर आने के लिए हमारे पास अपने युद्ध को
और तेज करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। वर्तमान में हम पूरी तरह युद्ध
में व्यस्त हैं। हमारे शरीर दुश्मनों की गोलियों से छलनी हैं। हमारे गिरते
हाथों से हथियार लेने के लिए प्रत्येक दिन नई शक्तियां उभर रही हैं जबकि दुश्मन
हमारे भाई और बहनों का मानवीय कवच के रूप मे इस्तेमाल कर रहा है और उन्हें मार
दे रहा है। हम उनके बलिदान हुए चेहरे के सामने कसम खाते हैं कि हमारा युद्ध
नहीं रूकेगा। २२ नवंबर को पेड़ाकोरमा में कामरेड बुदिरी की मौत हो गई। जब पुलिस
ने उन्हें मानवीय सुरक्षा चक्र के लिए इस्तेमाल किया। वह चार बच्चों की मां थी।
हम उन्हें क्रांतिकारी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इस जनयुद्ध में लगे लोगों
को बचाने में लगे अपने बच्चों को हम विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने
अपनी जान गंवा दी। इस युद्ध में बहुत सारे लोग घायल हुए हैं। उनके लिए दवाई और
स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी हो रही है। हमारी परंपरागत कोया आयुर्वेदिक चिकित्सा
उपचार की मुख्य दवा है जो लोगों केा बचा रही है। हम महिलाएं कुछ अतिरिक्त
समस्याओं से जूझ रही हैं। इन अक्रमणों के दौरान हम बचपन से प्रौढ़ावस्था तक की
सारी समस्याओं को सुलझा रही हैं। युद्ध हमें सब कुछ सिखा रहा है। हमें इस बात
की खुशी है कि यह सेमीनार इस वक्त हो रहा है और इस विचार को खारिज कर हो रहा है
कि महिलाओं की प्रकृति युद्ध के खिलाफ है। युद्ध हमारे जीवन का रास्ता बन गया
है। हमारे क्षेत्र में आइए, हमारे साथ सहयोग करिए, हम सब मिलकर लड़ाई लड़ेंगे,
हमारे दुश्मन एक हैं, हमारे उद्देश्य एक हैं, हमारे संघर्ष, हमारे रास्ते एक ही
हैं।
(अंग्रेजी से अनुवाद : अनामिल)
(17-18 मार्च, 2007 को रांची में ' क्रांतिकारी आदिवासी महिला मुक्ति मंच` के
सेमिनार में प्रस्तुत)

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